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________________ कवि ऋषभदास कृत व्रतविचारास श्रीवितरागाय नम ॥ दूहा ॥ पास जिनेस्वर पूजीइ, ध्याईइ ते जिनधर्म । नवपद धरि आराधीइ, तो कीजइ स्युभ कर्म ॥१॥ देव अरीहंत नमुं सदा, सीद्ध नमु त्रणी काल । श्रीआचारय तुझ नमुं, शाशननो भुपाल ॥२॥ पूण्यपदवी ऊवझायनी, सोय नमु नसदीस । साद्ध सवेनि नीत नमुं, धर्म विसायांहा वीस ॥३॥ क्रोध मांन माया नही, लोभ नही लवलेस । वीषइ वीषथी वेगला, भवीजन दइ ऊपदेस ॥४॥ उपदेशि जन रंजवइ, महीमा सरसति देव । तेणइ कार्ण्य तुझनि नमुं, सार्द सारू सेव ॥५॥ समर सरसति भगवती, समर्या कर जे सार । हु मुर्यख मती केल, ते माहारो आधार ॥६॥ पीगल-भेद न ओल, विगति नही व्याकर्ण । मुर्यख-मंडण मानवी, हु सेवू तुझ चर्ण ॥७॥ कवीत छंद गुण गीतनो, जे नवी जाणइ भेद । तु तूठी मुख्य तेहनि, वचन वदइ ते वेद ॥८॥ . मुर्यख मोटो टालीओ, कवी कीधो कालदास । जगवीख्याता तेहवो, जो मुख्य कीधो वास ॥९॥ कीर्ति करु तुझ केटली, मूझ मुख्य रसना एक । कोड्य जिह्वाइं गुण स्तवं, पार न पामुं रेख ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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