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________________ 116 March-2002 श्रीजिनचंद्र सेवक ताहरो हुं तो सेवा करूं करजोडि जि० । हीरसागर वंछीत इदीइं पुंहचे मननी कोडि जि० ॥५॥ अभि०॥ इति श्री अभिनंदन स्तवनं ॥ श्री सुमतिनाथ जिन स्तवनं । घरि आवो० ॥ सुमति जिणेसर सेवीइं ए तो सुमति तणो दातार । जस घटे सुमति वसे सदा तेह उतरे भवजल पार ||सु०॥१॥ सुमति सुमत गुणे भर्या ए विरत वधू भरतार । सुमत ने विरत ए बे मिली करे भविजननइं उपगार ।।सु०॥२॥ मेघ महीपति कुलतिलो धन धन मंगला मात । असरण ने सरण सहाय छौ प्रभु ! तुमे छो जगतना र तात ॥सु०॥३॥ नयण कमल दल पांखडी मुख सोहे पुनिम चंद । प्रभु, वदन निरखंतां सुमति प्रग? सुख कंद ॥सु०॥४॥ श्रीजिनचंद्र रिदय निहालिई सेवक जन तुम्हारो दास । हीरसागर प्रभु सुख घणां प्रभु ! आपो निकटें वास ।।सु०॥५॥ इति श्री सुमतिनाथ स्तवनं ॥ १. जगना तात, २. मुख, ३. तुमनो. श्री पद्मप्रभजिनस्तवन माहरु मन० ए देशी ॥ श्रीपद्मप्रभुजीनी करूं सेवना रे मन वचन' कायने जोग । प्रभु दीठे प्रभुता सांभरे रे हुइ निमित्तनो भोग ।।श्री०॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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