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________________ अनुसंधान - १९ ध्यातां (ता) ध्यान ने ध्येय एकें करी भाव हुई परमाण मे० । जिनचन्द्र पद आपीई हीरसागर सुख खाण मे० ॥ वि. ५ ॥ इति विमलनाथ स्तवनं । १. सधे श्री अनंतनाथस्तवन हूं तो वारि ढोलणि । ए देशी ॥ श्री अनंत जिन तारयो हो राज अनंत चतुष्टय गेह वारि म्हारा साहिबा । चौतीश अतिशये राजतो हो राज वाणी वरसे सुधारस मेह वा० ॥१॥ भविजन - मोर क्रीडा करे हो राज वरसें भगतिने मनखेत वा० । समकित अंकूरा उगीया हो राज श्रद्धा प्रतीत समेत वा० ॥२॥ व्रत फूल प्रगट्या सदा हो राज फल्या शिवफल सुख वा० । आतम रिद्धि प्रगट करी हो राज भांगी अनादिनी भूख वा० ||३|| प्रभुनिमित्त लही करी हो राज जे करसे उपादान सुद्ध वा० । प्रभुसेवा मुझने गमे हो राज जेहवा साकर दुद्ध वा० ||४|| अनंतजिन मुझ आपीइ हो राज जिनचंद्र सुख नितमेव वा० । हीरसागर तुम पयतणी हो राज करे अहोनिशि तुम सेव वा० ॥८॥ Jain Education International इति श्री अनंतजिन स्तवनं ॥ . श्रीधर्मनाथस्तवन चतुर सनेही मोहना ए देशी ॥ श्री धरमनाथ स्वामी सुणो तु मे धर्म प्रगट कर्यो स्वामी रे । आतम धरमनो अरथी धुं शुं कहिवुं शिवगामी रे ॥ धर्म० ॥१॥ 123 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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