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________________ 124 काल अनंते ओलख्यो धर्मनाथ जगनाथो रे । तुम छोडी बीजा किम नमुं कुण ले बाउल बाथो रे || धर्म० ॥२॥ दातार जाणी करी आव्यो तुम चरणे सांई रे । आपवुं होय ते आपीईं विमासी रह्या कांई रे || धर्म० ||३|| जो पोतानो त्रेवडो रस्युं जिनजी विचारो रे । एकपखिणी प्रीतडी छै प्रभु निरधारो रे ॥ धर्म० ॥४॥ शिवसुख जिनचंद्र आपीइं उपशम रसना कंद रे । हीरसागर प्रभु सुख घणां दीठे परमाणंद रे ॥ धर्म० ॥५॥ इति श्री धर्मनाथ स्तवनं ॥ १. ‘तुमे' नथी. श्रीशांतिजिनस्तवन जीहोनी ए देशी । March-2002 जीहो शांति जिणेसर प्रणमई लाला शांति जिणंद सुहाय जीहो । विश्वसेन नरपति चंदलो लाला अचिरानंद लागु पाय जीहो ॥१॥ जिणेसर सांभलि मुझ अरदास | आंकणी । जीहो चक्री पंचमो जाणीइं लाला सोलमा एह जिणंद जीहो । धरम चक्री तुमे वडा लाला जीहो दीपे जेम दिणंद जि० ॥२॥ जीहो अभयदान देइ करी लाला बांध्युं श्री जिननाम जोहो । जीहो सकल जीव ने निरभय कर्यां लाला पाम्या पंचम गति ठाम जि० ॥३॥ Jain Education International जो प्रभु ताहरी भगति सदा लाला महिर करो महाराज जीहो । जीहो सहिजे सेवक सुख करो लाला आपो अविचल राज जि० ||४|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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