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अनुसंधान - १९
तो किम आपण लिजीइ, पर केरुं वली धन । परभवि देवुं तेहनि, सुणज्यु जसरि कंन ॥६७॥ परधन लेतां सोहेलु, भोगवतां दूख होय । जो जांणो तो चेतयु, छल म म रमयु कोय ॥६८॥
परधन लेई एक नरा, करता अमृत आहार परभवि भंसा पर थई, सिर वहइसइ बहु भार ॥६९॥
सालि दालि घ्रत घोलथी, विष्य पिद्ध ते खास । पणि परधन नवि लीजीइ, दिंण तणो जगि दास ॥ ७० ॥
कवीत ॥ दिणतणो जगि दास, वास पणि दिणई मुकइ दिंणइ देह ज खोय, दिणथी भोजन चुकइ । दिइ दीन मुख होय, दिणथी दीसह दूखीओ दिणइ ऊवटवाट, दिणथी सुइ न सुखीओ ॥ दिणइ कीरति पंगलि नर्गगति नीसइ कही । नीच युनि अवतार, छूटइ पसु पीठिं वही ॥ ७१ ॥
दूहा० ॥ पीठि वहीनि छुटसइ, परवश तेहनि देह । ते भोगवतां दोहेलुं, जिहा दूखनो नही छेह ॥७२॥
ढाल ५३ । (५२ ) ॥
देसी० दइ दइ दरीसण आपणुं० ॥
पंच अतिचार एहना, जिन कहि सो पणि यलि रे । वस्त म वोहोरीश चोरनी, तुं मन त्यांहथी वाल्य रे ||७३||
चीत चोखुं नीत राखीइ राखि बहु सुख होय रे ।
मन मइलइ दूख पांमीओ, द्रमक भीखारी जोय रे ।
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चीत चोखुं नीत राखीइ ॥ आचली० ॥
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