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March-2002
लेअण लेइनिं मारतोजी, करतो अंद्री रे छेद । परभवि दूखीओ ते थयु जी, पाम्यु वेद कुवेद ॥१४॥ सो०॥
मृगावति जगि जे सती जी, तस कुखि अवतार । लोढो थईनई ऊपनो जी, अंद्री विन आकार ॥१५॥ सो०॥ पग विन पापि ऊपनो जी, कर विन काया रे दीठ । श्रा(श्र)वण नेत्र नही नाशका जी, ऊदर नही तस पीठ ॥१६॥ सो०॥ रोम आहार लोटी लीइ जी, अती काया दूरगंध । पूर्व कर्म ते भोगवइ जी, ऊशभ तणो जे बंध ॥१७॥ सो०॥ ते माटई सहु संभलु जी, दया विनां नही धर्म । कुर्णा मनमाहां आणीइ जी, परहरीइ कुकर्म ॥१८॥ सो०॥
दहा० ॥ कर्म कुकर्म न कीजीइ, कीधि किम सुख होय । जेणइ हंशा हरषि करी, नरगि रम्या नर सोय ॥१९॥
ढाल ४९ (४८) चोपई ॥ सहइजिं जे करता तापणुं, पूण्य परजालइ छइ आपणुं । सिरि वाहइ छइ जे कांकस्यु, पूण्यपालिथी ते नर खस्यु ॥२०॥ मांकणनि तावडी नाखसइ, ते नरनारी दूखीआ थसई । वीछी छांण लेई चांपसइ, दूख देअंतां सुख किम हसइ ॥२१॥ चांचण जुअ बगाई जेह, चाप्यां मार्यां दूहुव्यां तेह । कीडी मंकोडा ऊगार्य, ईडां फोडी पंडि म भार्य ॥२२॥ मंकोडा मारि घीमेलि, लिष कातरा नि चुडेल । दादूर ऊधेई नि मस्यो, मारीनिं कां दूरगति वस्यु ॥२३॥ माखी अई अलि नि अलसीआ, मारी कारय कीधां कस्यां । परम पूरष नि वचने रहीइ, 'मार्य' शब्द मुख्यथी नवी कहीइ ॥२४॥
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