________________
90
March-2002
ढाल ७४ ॥ चोपई ॥ अग्यारमु व्रत तुं आराधि, सुधो मारग तुं पणि साधि । ओहोरतो पोसो कीजीइ, मुगतितणां फल तो लीजीइ ॥१॥ पोसो पूण्यतणो भंडार, परभवि जातां ए आद्धार । मनस्युधिं आराधइ जेह, अनंत सुख नर पांमइ तेह ॥२॥ पांच अतीचार एहना टालि, संथारानि भोमि संभालि । ठंडिल पडलेही वावरो, भवीजन लोको विधि आदरो ॥३॥ प्रठवीइ ज्यांहां जइ मातरू, पहइलु द्रीष्टिं जोईइ खरू | 'अणजांणो जसगो' कही, प्रठवीइ जइणाई सही ॥४॥ वार त्रणि कहीइ वोशरे, नीसही आवसही मनि धरे । कालवेलां वांदीजइ देव, पोसानि एम कीजइ सेव ॥५॥ प्रथवी पांणी तेऊ वाय, वनसपति छठी त्रसकाय । संघट एहनो नवि कीजीइ, पोसानुं फल एम लीजीइ ॥६॥ दिवसिं न्यंद्रा कीधी घणी, संथारापोरश नवि भणी । अवधइ संथार्यु वलि जेह, मीछादूकड दिजइ तेह ॥७॥ पोषध वली असुर्यु करइ, पारी वहइलु घरि संचरइ । भोजननी वलि च्यंत्या करइ, कहइ तुझ काज केही परि सरइ ॥८॥ परबतिथिं पोसो नवि कीओ, मीछादूकड तेहनो दीओ । अंगि अतिचार कां तुम्य [दिओ] पोतानो समझावो हिओ ॥९॥
दुहा० ॥ आप हईउं समझाविइ, कीजइ तत्त्ववीचार । पोषध पूण्य किआ व्यनां, कहइ किम पांमीश पार ॥१०॥ ए व्रत सुणि अग्यारमुं, वरत सकलमांहां सार । वली व्रत बोलुं बारमुं, ऊत्तमनो आचार ॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org