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March-2002
जिनप्रतिमा जिनसी कही, सुत्र ऊवाई नर्षो सही । अंबडनो वली जो अधीकार, अनि देव गुरु नही नीरधार ॥११॥ पंचम अंगि ए अधीकार, वणि सर्ण माहिल्यु एक सार ||
अरीहंत चईत साधनुं सर्ण, करिं न लहइ चमरेदो मर्ण ॥१२॥ तव तस मतनो बोल्यु मर्म, दया विनां नवी दीसइ धर्म । जिन पूजंतां हंशा होय, पापि मोक्ष न पोहोता कोय ॥१३॥ सुविहित कहि मति ताहारी गई, नदी ऊतरवि जिनवरि कही । कुंण काणि कहइ ति सदही, बोली दया ताहारी किम रही ॥१४॥ मोहोपोत पडीलेहइ जेह, जीव असंख्या हणतो तेह । तोहइ भलो जिन भाषइ तास, वण पडिलेहेणि दूरगति वास ॥१५॥ एक घरि बइठो वंदन करइ, एक गुरुनि साहामो संचरइ । अदिक लाभ तु तेहनि कहइ, दया धर्म ताहारो किम रहइ ॥१६॥ युगल पूर्षनुं सर्ख मन, एक उंहुनु एक ताढु अन । मुनीवरनि वइहइरावइ दोय, कहइ फल अदीकुं कहिनि होय ॥१७॥ जो फल होयि सीतल धणी, तो पूजा सही मिं अवगुणी । उष्ण आहार दीधई फल होय, तो प्रतिमा मांनो सहु कोय ॥१८॥ ऊहुंना आहारतणो अवदात, नर शंगमनि सूणजे वात । चीत वीत नि म्यलीउं पात्र, सालिभद्र सकोमल गात्र ॥१९॥ कोएक जंत जलमांहि पड्यु, माहापूर्षनी द्रीष्टि चढ्यु । कइ काढइ के मरवा दीइ, वेगो बोली विमासी हईइ ॥२०॥ जलि बुडंतो काढइ जेह, जिव अशंख्या हणतो तेह । तोहइ ते पणिं कुर्णावंत, अस्यु वचन भाषइ भगवंत ॥२१॥ अणगल पांणी जे नर पीइ, कुगतिपंथ ते नीसइ लीइ । गलतां गलनु भीजइ जसि, जिव असंख्या वणसइ तसिं ॥२२॥
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