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अनुसंधान-१९
ज्ञान अनंत तणो जिन धणी, समोवसरणि ठुकराई घणी । चामर छत्र सीघासण सोहि, जस रिधि पार न पांमइ कोय ॥९९।। ते जिनवर मुख्य वांणी कही, शास्वती जिनप्रतिमा सही । सर्ग-नर्ग निं मोक्ष ते छती, अस्यु वचन भाषइ माहामती ॥३००॥ एह वचन जेणइं नवी सदा, मुढमती तेणइ कांई नवि लद्यु । नीसचइ समकीत तेहD गयुं, मीछादुकड दइ तो रह्यं ॥१॥ जिनथी जे ऊफराटा थयां, सो नर केता नरगिं गया । कुमततणइ जे रोगि ग्रह्या, पाप पूर्मी ते नर वह्यां ॥२॥ जांणीनई ऊथापइ जेह, अनंत दूख नर पांमइ तेह । भोगवतां नवि आवइ छेह, सुख किम पांमइ तेहनी देह ॥३॥ एक दरसणम्हां पाड्यु भेद, तेणइ ऊथाप्या जिनना वेद । विरवचन हईइ नवि धर्यु, समकीत बाली ल्याहालो कर्यु ॥४॥ जिनवयणांनि करइ असार, आप वचन थापइ नीरधार । मति मती दीसइ ए आचार, कहो पथी (छी?) किम पांमइ पार ।।५।। एक जिनप्रतिमा साथि द्वेष, मुनीवरना ऊथाप्या वेष । योग ऊपधांन नषेधइ माल, पडइ नीगोदि अनंतो काल ॥६॥ राजप्रष्णी ते न जुइ सुत्र, तो ताहारु किम रहइ घरसुत्र । सुरीआभ देवि पूजा करी, कोण कार्ण कहइ ति परहरी ॥७॥ द्रुपदीनो वली जो अदीकार, छठि अंगि सोय वीचार । नमोथणुं जिनभुवनि कह्यु, कुमत रोगीइ नवी सदयं ॥८॥ सुत्र सीधांत पेखो भगवती, जंघा-विद्या चार्ण यती । नंदिस्वर मेर परबति जाय, जिनप्रतिमाना वंदइ पाय ॥९॥ वंदी पाय नि पाछा फरइ, अही जिनप्रतिमा वंदन करइ । ए अष्यर मांनि ते सुखी, नवी मांनी ते थासइ दूखी ॥१०॥
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