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________________ 82 March-2002 भवीकाजन, अभिष्यतणुं बहु पाप, वीषमइ पंथइ चालवू रे, तिहा सबलो संताप, भवीकाजन, अभष्यतणुं बहु पाप ॥आचली० ।। उंबर वडलो पीपलो रे, पीपरडी फल वार्य । फलह कठुबर परीहरो रे, एम आपोयुं तार्य ॥२०॥ भवीका० ॥ च्यार वीगइ जिन जे कही रे, ते जांणोअ अभष्य । जईन धर्म जगि जांणीओरे, तो किम दीखइ मुख्य ॥२१॥ भ० ॥ मदीरा मंश मुख्य नही भलु रे, पति पूर्वयनी जाय । मध-मांखणना आहारथीरे, प्रांणी मइलो थाय ॥२२॥ भ०॥ मधनी ऊतपति जोईजई रे, तो नवी दीसइ सार । श्रवरस लेई माखी विमइ रे, तो स्यु कीजइ आहार ॥२३।। भ० ॥ गांम जलंतां जेटलु रे, लागइ पोटु पाप । मधभक्षणथी तेटलु रे, कां बोलइ छइ आप ॥२४॥ भ०।। हीम करहा विष बिंगणां रे, माटी मुख्य म देश । तुम नीशभोजन परीहरो रे, सुरघरि रंगिं रमेश ॥२५॥ भ० ॥ तुछ फलानिं नवी भषो रे, आंमण बोर अपार । जे जगी जांबु टीबरु रे, पीलु पीचु असार ।।२६।। भ० ॥ बहुबिजनी जाति जाणीइ रे, रीगण निं पंपोट । अंतरपट विन पीडलु रे, तीहा म म देयु डोट ॥२७॥ भ०॥ काय अनंती ओलखोरे, घोलवडा- साख । अणजांण्या फल परीहरो रे, चलीतरस अथाणुं पाक ॥२८॥ भ०॥ दूहा० ॥ आप अथाणुं परहरे, कंदमुल मुख्य वार्य । अनंतकायनि परीहरइ, ते नर मुष्य-दूआरि ॥२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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