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________________ 120 श्रीशीतलनाथस्तवन म्हेंतो निजरा रहिस्यांजी ॥ ए देशी ॥ म्हें तो दिलमां धरस्यांजी म्हारा रे साहिबने म्हें तो दिलमां धरस्यांजी । दिलमां धरस्यां अनुभव करस्यां रहस्यां स्वामी हजूर । शिवसुख पामी आनंदरामी लहस्यां सुख भरपूर म्हें० ॥ १॥ वीतरागता मुखने मटके नयणनें लटकें अटक्यु छे मुझ मन्न । मन वच काया दिल थामां धरतां उल्लस्यां छे मुझ तन्न, म्हें० ॥२॥ जोगमुद्रानो लटको चटको केवल ज्ञान स्वरूप । जग उपगारी छौ हितकारी जिनजी छौ अनुप, म्हें० ||३|| गिरुआ सागर गुण विरागर आगर हीरा जाण । आतम ध्यानें प्रभु गुण ज्ञानें होये सकल सुख जाण, म्हें० ॥४॥ आणंदरूपी सहज सरूपी चिदानंद भगवान । अहनिश ध्याउं आनंद पाउं दिनदिन चढतें वान, म्हें० ॥५॥ March-2002 मूरति मनोहारी लागे प्यारी, दीठे उपजे सुख । मैत्री उपजावी रत्नत्रयी भावी, दूरि कर्यां सवि दुःख, म्हें० ||६|| शीतल जिन दीठें शीतल थाइं आतम धर्म प्रकास । श्रीजिनचंद्रसूरिंदनो सेवक हीर करे अरदास, म्हें० ॥७॥ इति श्री शीतलनाथ स्तवनं ॥ १. शीतल दीठे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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