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________________ 86 ढाल ७० ॥ देसी ० तुगीआगीरसीखरि सोहइ० ।। राग- परजीओ ॥ जंत्रपीलण जन न कीजइ, घ्यंट घांणी जेह रे । ऊखल मुसल जेह कोहोलुं, तु म वाहीश तेह रे ॥ ५८ ॥ जंत्रपीलण जन न कीजइ ॥ आंचली० ॥ जंत्र वाहातां जीव केता, प्राणविहुणा थाय रे । तेणइ कारणि ए कर्म तजीइ भजो अवर उपाय रे ॥ ५९ ॥ जंत्र० ॥ March-2002 आंक पाडइ पूण्य हारइ, तजि नालछेदन करम रे । कर्ण - कंबल कांइं कापो, जो जाणो जिनधर्म रे ॥ ६० ॥ जं० ॥ बाल तुरंगम वच्छ पूर्षा, नर समारइ सोय रे । नीचगती ते लहइ नीसचइ, वली नपूसक होय रे ॥ ६१ ॥ जं० ॥ दव लगाडइ पसु बालइ, सो सुखी किम थाय रे । छेदन भेदन लहइ नर ते, भाष [इ] श्री जिनराय रे ॥ ६२ ॥ जं० ॥ कुआ वाव्यु द्रहइ म सोसो, जीव केति कोडि रे । प्रांण परनो ज्याहा हणाइ, एह मोटी खोड्य रे || ६३ || जंत्र० ॥ मछ कसाई अनि तेली, वागरी ववसाय रे । नीच जननी संगति करतां, हंस मइलो थाय रे ॥ ६४ ॥ जं० ॥ स्वान कुरकुट मांजारा, पोषीइ कुण कांम्य रे । एह पनर खरकर्म टालु, वसो सीवपूर ठाम्य रे ॥ ६५ ॥ जं० ॥ दूहा० ॥ सीवपूर ठांमि सो वसइ, जे नवी करइ कुकर्म । अष्टम वरतिं जे कछु, सुणिहो तेहनो मर्म ॥६६॥ ढाल ७१ ॥ देसी ० तो चढीओ घन मानगजे० || Jain Education International व्रत आठमु एम पालीइ ए, टाले अनर्थडंड तो । खेला नाटिक पेखणु ए, नवि जोईइ पाखंड तो ॥ ६७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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