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________________ 13 अनुसंधान-१९ ब्रह्मांणी तुं समर्यां करजे सार, तुझ नामि जइ जइकार, ताहारइ कंठि रयणनो हार, . चरणे नेवरनो झमकार, ब्रह्माणी तुं समर्यां करजे सार ॥आंचली०॥ चंदमुखी मृगलोयणी रे, कनककचोलां गाल । नाशक ओपम कीर्नी रे, अष्टम ते ससी भाल ॥२१॥ भ्र०॥ जीम अमीनो कंदलो रे, अधु(ध)र प्रवाली रंग । दंत जशा डाडिम-फुल रे, अकल अनोपम अंग ॥२२॥ भ्र०॥ भमरि वंक जिम वेलडी रे, धनुष चढाव्यु बाण । मुर्यख सहि वही चालीआ रे, वेध्या जाण सुजाण ॥२३।। भ्र०॥ श्रवण ते काम हीडोलड्या रे, नाग नगोदर झालि । वेणी वाशग जीपीओ रे, हंस हराव्युं चालि ॥२४॥ भ्र०॥ फूली सइंथो राखडी रे, षीटली खंति भालि । ऊपरि सोहइ मोगरो रे, जिम स्युक अंबाडालि ॥२५॥ भ्र०॥ 'मुगताफल भखी जेहनुं रे, तेणइ वाहनी चढी माय । कवीजन समरइ सारदा रे, तस मुख्य रमवा जाय ॥२६॥ भ्र।। रमती रंगि एम भणइ रे, कवी कवयु गुणमाल । एह वचन श्रवणे सुणी रे, नर हा ततकाल ॥२७॥ भ्र०॥ हु हो कवीजन कईं रे, ऊत्तम कुल आचार । नरनारी सहु संभलु रे, वरत कहुं जे बार ॥२८॥ भ्र०॥ . दूहा० ॥ एणइ जगी धर्म-युगल कह्या, भाख्या श्रीजिनराय । श्रावक धर्म यती तणो, सुणयु एकचीत लाय ॥२९॥ __ ढाल०४ (३) चोपई० ॥ लाई चीत सुणयु सहु कोय, दसवीध्य धर्म यतीनो होय । ख्यमावंत निं आर्जवपणुं, मांन न राखइ मनम्हां घणुं ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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