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________________ 60 March-2002 जीव हणंतां जिन कहइ जी, नीसचई नरगि रे जाय ।। भुख्यां आमिष देहनु जी, तरस्या तर पाय ||९४|| सुप्रांणी०॥ कष्ट रोग नि कुबडो जी, अतिदूरगंधी रे देह । अलप आऊखइ ऊपजइ जी, हंशानां फल एह ॥९५।।सुप्रांणी०।। पंडीत होइ ते प्रीछयु जी, जीवदया जगी सार । दया विनां किम पांमीइ जी, ए संसारां पार ॥९६॥ सुप्रांणी० ॥ जीवदया एम पालीइ जी, जिम जगी मेघरथ राय । पारेवो जेणइ राखीओ जी, परभवि अरीहा थाय ||९७॥ सुप्रांणी० ॥ मंश देहर्नु कापीउं जी, मुक्यु बाजु रे माहिं ।। त्राजु तोहइ नवि नमइ जी, धीर न चुको त्याहि ॥९८॥ सुप्रांणी० ॥ एक लाख ग्यवरीतणां जी, दूध तणी खीर खाय । तोहइ काया कार्यमी जी, हंसा केड्य न जाय ॥९९॥ सुप्रांणी० ॥ तोलइ देही कार्यमी जी, म करीश प्रांणी रे घात । सुर हरख्यु तव बोलीओ जी, ध्यन ध्यन तु नरनाथ ।।५००। सुप्रांणी०॥ सुर आकासइ संचर्यु जी, हुओ ते जइजइ रे कार । जीवदया एम पालीइ जी, तो लहीइ भवपार ॥१॥ सुप्रांणी० ॥ ढाल ४७ । (४६)॥ देसी० चाली चतुर चंद्राननी० ॥ राग- मल्हार ॥ जीवदया एम पालीइ, जिम गज सुकमाल रे । पग ‘अढी दिवश तोली रघु, मेघ जीव क्रीपाल रे ॥२॥ जीवदया एम पालीइ || आंचली० ॥ किम तेणइ जंत ऊगारीओ, कीम रघु गजराज रे । तास चरीत्र सहुं सांभलु, सारो आपणुं काज रे ॥३॥ __ जीवदया एम पालीइ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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