SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 51 अनुसंधान-१९ वार अठोतर सो रमइजी, जीपइ पूतली एक । अठोतरसो वारनो जी, आंक कहु तुझ छेक ॥५॥ सु०॥ बार लाख नि ऊपरिंजी, ओगणसठि हजार । सात सह्यां निं जांणजे जी, ऊपरि अदीका बार ॥६|| सु०॥ अनुवर जीपइ जुवटइजी, राज लीइ नीरधार । नवि जिपइ, जीपइ सहीजी, किहां मानव अवतार ॥७॥ सु० ॥ रयण घणा छइ सेठिनि जी, वेच्यां जुजूइ देश । ते जो मेलइ एगठां जी, तो मानवभव लहइश ॥८॥ सु० ॥ सुपन एक नर दोयनि जी, वदने चंद पईठ । एक रोटो एक राजीओ जी, एम जगी अंतर दीठ ॥९॥ सुणो०॥ रोटावालु चीतवइ जी, चंद लहु मुखमांहिं । नावइ, पणि आवइ सही जी, नरभव छइ कहइ क्याहि ॥१०॥ सुणो न०॥ स्वयंभुरमण जल पूरविं जी, धोंसर मुकइ रे जाय । पछिम कीली प्रठवइ जी, किम संयुगी थाय ॥११॥ सुणो०॥ पवन परेर्यां दोए जाणां जी, धोंसर कीली रे एक ।। पणि नरगति छइ वेगली जी, पांमइ पूण्य वसेक ॥१२॥ सुणो० ॥ कुपि रहइ एक काचबो जी, सात पडो रे सेवाल । कुरमिं दीठो चंदलो जी, फरी जोतां विशराल ॥१३॥ सु०।। थांभा ऊपरी आंणीइ जी, च्यंतो चक्र वशेक ।। अवलुं सवलं ते फरइ जी, अछइ पूतलि एक ॥१४॥ सु०॥ जलकुंडी जोवा लुलइ जी, शर सांधइ नर जांण । वांम आंख्य जई पूतली जी,तीहा जई वागइ बांण ॥१५॥ सु०॥ अवनी ऊपरी नर घणा जी, कोएक पांमइ रे पार । राधावेध ते साधता जी, दूलहो नर अवतार ॥१६॥ सु०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520519
Book TitleAnusandhan 2002 03 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy