Book Title: Vardhaman Deshna Part 02
Author(s): Jain Dharma Prasarak Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
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|साए, कारणमच्छरकारि पुरिसाणं । पल्लंके मिउफरिसे, सुत्तो सो कवडनिदाए ॥ ११० ॥ बुट्टा भइ पयर्ड, समइकवम्मि' अद्धरत्तम्मि । सुत्तो जग्गइ को वा', इन वुत्ते जंपइ ण को वि ॥ १११ ॥ मुत्तूण जिण्णमंचग-मागंतृणंगणे खणेणं सा । भूमीइ निषडिऊणं, जाया वडवा कुमंतेणं ॥ ११२ ॥ तिणभारं भक्खिता, सयलजलं तक्खणेण पाऊणं । संजाया रूपवई, | विभूसिाहरणपयरेण ॥ ११३ ॥ सा सिग्धं जाइ तो, विणिग्गया पिट्ठगो हबह सूरो । बहुजोइजोइणीसय-संकुलमाविसइ महषिवरं ॥ ११४ ॥ साहति जोइणीभी, मायससा आगयागया भो भो ।। प्रालिगिऊण तामो, पडिआओ जरइपाएसुं ॥ ११५ ॥ उववेसिभासणे तं. संसेवित्र ताओ इन पसाहति । किं वाणीमा तुमए, माय ! बली निथसुभआहेउं ।। ११६.।। वुड्डा पसाहए इम, धीरा चिम होह वच्छिमा तुम्भे । तुम्हकए आणेमी, पुरिसे इंतूण मेहु बलि ॥ ११७ ॥ संपत्तो ताव जनमेष भुक्त्वा चिन्तयत्येवम् । याति कुत्र तृणसलिलमायान्ति कुतोऽत्र वस्तूनि ॥१०६ ।। प्रेक्षे मध्यनिशायां कारणमाश्चर्यकारि पुरुषाणाम् । पल्यके मृदुस्पर्श सुप्तः स कपटनिद्रया ॥ ११०॥ वृद्धा भणति प्रकटं समतिक्रान्तेऽर्धरात्रे | सुप्तो जागर्ति को वा ? इत्युक्ते जल्पति न कोऽपि ॥ १११।। मुक्त्वा जीर्णमश्चकमागत्याङ्गणे क्षणेन सा । भूम्यां निपत्य जाता वडवा कुमन्त्रेण ।। ११२॥ तृणभारं भक्षयित्वा सकलजलं तत्क्षणेन पीत्वा । संजाता रूपवती विभूषिताभरणप्रकरेण ॥ ११३ ॥ सा शीघ्रं याति ततो विनिर्गता
पृष्ठगो भवति सूरः । बहुयोगियोगिनीशतसंकुल माविशति महाविवरम् ॥ ११४ ॥ कथयन्ति योगिन्यो मातृष्वसाऽऽगताऽऽगसा | भो भोः !। पालिङ्गध ताः पतिता जरतीपादयोः ।। ११५ ॥ उपवेश्यासने तां संसेव्य वा इति कथयन्ति | किं नानीतस्त्वया
मातलिर्निजसुताहेतुम् ॥११६ ।। वृद्धा कथयतीति धीराः खलु भवत वत्साः! यूयम् । युष्मत्कृत आनयामि पुरुषाम् हत्वा
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