Book Title: Vardhaman Deshna Part 02
Author(s): Jain Dharma Prasarak Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
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षष्ठ
श्री वर्धमानदेशना।
उन्नास
॥३२॥
भमणस्संतदेहु च ॥ ११५ ।। तत्थारोहित्र भन्जं, तं च नवोढं व हरिसिमो कुमरो। महदुग्गमंतरीवं, संपत्तो महसमुहस्स ॥ ११६ ॥ अह तत्थोअरिअ मही-पालसुओ सो सुवेइ निम्भीभो । मिउपल्लवपल्लंके, मणम्मि विव कामदेवस्स ॥११७॥ अइछुहिअं निदइअं, दहणं मोअगाणयणहेउं । साऽऽरोहइ दारुहयं, मुत्तेवागासदेवीव ॥ ११८॥ गंतूणं दारुहयं, मुत्तूब गवक्खए निवसुभा सा । पविसेइ निआगारं, पडिपुण्णं मोअगाईहिं ॥ ११९ ॥ इत्तो महवाएणं, दारुहो पाडिमो महीवीढे । भग्गो समुद्दमय-क्खलिममहाजाणवत्तु व्ध ॥ १२०॥ वित्तूण मोअगे सा, निवपुची जाव एइ सगवखं । ता पिच्छइ दारुहयं, भग्गं भूमंडले पडिनं ॥ १२१ ॥ पडिकूलमहो दइवं, दुहावह हवइ सबो नूणं । हा हा! पुवाइण्णं, कम्ममुइण्णं ममोअग्गं ॥ १२२ ॥ अणुकुलो पालेई, पिउ ब वसणे विही समाहीए । पडिकूलो सयमग्ग-डि पि पाडेइ काष्ठतुरगः सः ॥ ११४ ॥ गत्वा कुमार्या गवाक्षे कृत्रिमो यो झटिति । गगनादवतरति चिरभ्रमणश्रान्तदेह इव ॥ ११५ ॥ तत्रारोह्य भार्या तां च नवोढामिव हृष्टः कुमारः । महादुर्गमन्तरीपं संप्राप्तो महासमुद्रस्य ॥ ११६ ॥ अथ तत्रावतीर्य महीपालसुतः स स्वपिति निर्भीकः । मृदुपल्लवपल्यके मनसीव कामदेवस्य ॥ ११७ ॥ अतिक्षुधितं निजदयितं दृष्ट्वा मोदकानयनहेतुम् । साऽऽरोहति दारुहयं मूत्वाकाशदेवीव ॥ ११८ ॥ गत्वा दारुहयं मुक्त्वा गवाक्षे नृपसुता सा। प्रविशति निजागारं प्रतिपूर्ण मोदकादिभिः ॥ ११६ ॥ इतो महावातेन दारुहयः पातितो महीपीठे । भग्नः समुद्रमध्यस्खलितमहायानपात्रमिव ॥ १२०॥ गृहीत्वा मोदकान् सा नृपपुत्री यावदेति स्वगवाक्षम् । तावत्प्रेक्षते दारुहयं भग्नं भूमण्डले पतितम् ॥ १२१ ॥ प्रतिकूलमहो देवं दुःखावहं भवति सबतो नूनम् । हा हा ! पूर्वाचणि कर्मोदणं ममोक्प्रम् ॥ १२२ ॥ मनुकूलपालयति पितेव व्यसने विधिः समाधिना । प्रतिकूलो
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॥३२॥
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