Book Title: Vardhaman Deshna Part 02
Author(s): Jain Dharma Prasarak Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
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चतुर्थ
श्री वर्षमानदेशना।
उल्लासः।
।। १३४ ॥ दहण रायमग्गं, अइसुन्न सम्वो तया पगया । तुरयपयाइँ विलोइन, ते पचा रायभवणम्मि ॥१३५ ॥ तत्थ
गया ते तत्तो, पुरनो पिच्छति बंधुरं भवणं । धवलं सहस्ससिहरं, केलासगिरिंदसरिससिरिं ॥ १३६ ॥ तत्थ पविट्ठा दारं, | पवालदलमंडियं ससंकपया । जलविन्भमेण नीला-वणीइ तिणविम्भमेणं वा ॥ १३७ ॥ वुड्डा पुरोवविहा, दिद्वेगा छिन्ननासिधा तेहिं । थूलसरीरा बहुल-पहाभरुम्मासिदिअंता ॥ १३८ ॥ देह णया साऽऽसीसं, होउ तुवाणं सुभारिमासंगो । रमणिजाहि कर्णीहिं, सत्तहि घिलसेह मो भद्दा! : १३६ ॥ भग्गेसरो हवित्ता, चिट्ठो पुच्छेइ छिन्नणासं तं । | माय ! इमाउ कणीयो, कामो देवीसमाणाभो ? ॥१४०॥ खेमरसुभाउ मह सुप्री, योमित्तिअवयणो इहाणीमा। तुम्हाणं पाणिग्गह-कए अहो । समिअ जायं ।। १४१ ॥ मुंजेह सुई भोए, परिणिभ एआउ पुण्णपुग्णाओ। गिहमेश्र ॥ १३३ ॥ गृहश्रेणिः सुविमानश्रेणिरिव भासते सुवर्णमयी । जिनभवनशिखरसंस्थितकाञ्चनकलशैः कृतशोभा ॥ १३४ ।। दृष्ट्वा राजमार्गमतिशून्यं सर्वतस्तदा प्रगताः । तुरगपदानि विलोक्य ते प्राप्ता राजभवने ॥ १३५॥ तत्र गतास्ते ततः पुरतः प्रेक्षन्ते बन्धुरं भवनम् । धवसं सहस्रशिखरं कैलासगिरीन्द्रसदृशनि॥१३६ ॥ तत्र प्रविष्टा द्वारं प्रवालदलमण्डितं सशङ्कपदाः । जलविभ्रमेण नीलावन्या तृणविभ्रमेण वा ॥ १३७ ॥ वृद्धा पुर उपविष्टा दृष्टैका छिन्ननासिका तैः । स्थूलशरीरा बहुलप्रभाभरोद्भासितदिगन्ता ।। १३८ ॥ ददाति नता साऽऽशिर्ष भवतु युष्माकं सुभार्यासनः । रमणीयाभिः कनीभिः सप्तभिर्विलसत भो भद्राः ! ॥ १३९ ।। अप्रेसरो भूत्वा घृष्टः पृच्छति छिननासा ताम् । मातरिमाः कन्या: का देवीसमाना: १॥ १४० ॥ खेचरसुता मया सुख ! नैमित्तिकवचनत इहामीताः । युष्माकं पाणिप्रहकृतेऽहो ! सत्यमिति जातम् ।। १४१॥ मुक्त सुखं भोगान् परिणीयता:
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