Book Title: Vardhaman Deshna Part 02
Author(s): Jain Dharma Prasarak Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ चतुर्थ वर्धमान उवासम देशना। ॥१४॥ पणमिऊण जिणं ॥ २१३ ॥ सगिहम्मि सुरादेवो, संपत्तो निकुडंबपरिभरियो । पकुणइ जिणिंदधम्मं, सम्म सुविहीइ जिणभत्तो ।। २१४ ।। चउदसवरिसाइँ तो, गयाइँ धम्मं सया कुणंतस्स | अह पनरसम्मि वरिसे, ठवितु पुत्वं सगिहमारे ॥ २१५ ॥ आणंदु ध्व समग्गा, पुव्वुत्तविहीइ वहइ पडिमाओ। पोसहसालाइ सुरा-देवो किमदमसंथारो ॥ २१६ ॥ अह मज्झरत्तसमए, धम्मज्झाणम्मि बढमाणस्स । तस्स पुरो खम्गकरो, पयडीहूयो भणइ एवं ॥२१७॥ सग्गापवग्गसुक्खं, ईहंतो जह वि पोसहाइवयं । णो भंजसि मृढ ! तुमं, तो जिदुसुमं विणासेमि ॥२१८॥ मंसस्स पंच मूले, काऊण कडाहए पचित्ता से । तुह देहं गुणगेहं, लिपिस्सं मंससहिरेहिं ॥२१६ ॥ तो अतिजालपडिभो, अकालि मरिऊण दुग्गइ गमिही । बीमं तइयं वारं, साहेइ सुरो सुरादेवं ॥ २२० ॥ तो आणिऊण जिटुं, पुत्तं सयखाउ सो हणइ पुरभो । मंसेशं रुहिरेणं, तस्स सरीरं विलिपेह ॥ २२१ ॥ चुलिणिपिअस्स च तस्स य, उवसग्गं सो पुणेइ जिनेन्द्रधर्म सम्यक सुविधिना जिनभक्तः ॥ २१४ ॥ चतुर्दश वर्षाणि ततो मतानि धर्म सदा कुर्वतः । अथ पञ्चदशे वर्षे स्थापयित्वा पुत्रं स्वगृहमारे ॥ २११ ॥ भानन्द इव सममाः पूर्वोक्तविधिना वहति प्रतिमाः । पौषधशालायां सुरादेवः कृतदर्भसंस्तारः॥ २१६ ॥ मथ मध्यरावसमधे धर्मच्याने वर्तमानस्य । सस्य पुरः खड्गकरः प्रकटीभूतो भणत्येवम् ॥ २१७॥ स्वर्गापवर्गसौख्यमीहमानो यद्यपि पौषधादिव्रतम् । नो ममशि मूढ ! त्वं ततो ज्येष्ठसुतं विनाशयामि ।। २१८ ॥ मांसस्य पञ्च शूलानि कृत्वा कटाहे पक्त्वा तस्य । तब देहं गुणगेई नेप्स्यामि मांसमधिरैः ।। २१९ ॥ ततोऽर्तिजालपतितोऽकाले मृत्वा दुर्गतिं गमिष्यसि । द्वितीय तृतीयं वार कथयति सुरः सुरादेवम् ।। २२०॥ तप्त पानीय ज्येष्ठं पुत्रं शयनात् स इन्ति पुरतः (तस्थ)। मांसेन रूधिरेण तस्य शरीरं भा॥१४॥ Jain Education inte For Private Personel Use Only ainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180