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प्रकरणवक्रता
इस प्रकार तृतीय उन्मेष तक कुन्तक प्रथम उन्मेष में परिगणित, वर्णविन्यास. पदपूर्वार्द्ध, पदपरार्द्ध और वाक्य की वक्रता का विवेचन प्रस्तुत कर अवशिष्ट प्रकरण और प्रबन्ध की वक्रता का चतुर्थ उन्मेष में विवेचन करते हैं। अनेक वाक्यों का समूह और सम्पूर्ण प्रबन्ध का एक अंश प्रकरण कहलाता है । जहाँ कवि इन प्रकरणों को अपनी सहज और पाहार्य सुकुमारता से रमणीय बना देता है वहाँ प्रकरणवक्रता होती है । इसके अनेक प्रभेद कुन्तक ने प्रस्तुत किए हैं:
१. जहां पर कवि पुरातनी कथा में अपनी अबाध स्वतन्त्रता का आश्रयण . करके इस प्रकार से अपने अभीष्ट अर्थ को प्रस्तुत करता है कि न तो मूल का .... उच्छेद होने पाता है और न इस नयी कल्पना के उत्थान के विषय में कोई
आशंका ही की जा सकती है, वहाँ कुन्तक के अनुसार पहली प्रकरणवकता होती है। जैसे 'रघुवंश' में कालिदास द्वारा उपनिबद्ध किया गया रघु और कौत्स का प्रकरण ।
२. दूसरे प्रकार की प्रकरणवक्रता वह होती है जहाँ पर कवि इतिवृत्त में प्रयुक्त कथा में भी अपनी प्रतिभा के बल पर किसी नवीन प्रकरण को उद्भावित कर उसे काव्य का जीवितभूत बना देता है। यह कवि की नवीन उद्भावना दो प्रकार की होती है। एक तो वह जहाँ कवि इतिवृत में अविद्यमान की ही उद्भावना करता है-जैसे अभिज्ञान-शाकुन्तल में दुर्वाशा के शाप की उद्भावना। और कहीं पर इतिवृत्त में विद्यमान भी प्रकरण को अनौचित्ययुक होने के कारण नये ढंग से प्रस्तुत करता है। जैसे 'उदात्तराघव' में मारीचवध का प्रकरण जहाँ मृग को मारने के लिए गए हुए लक्ष्मण की रक्षा हेतु राम का गमन दिखाया गया है।
३. तीसरी प्रकरणवक्रता वहाँ होती है जहाँ कवि काव्य के मुख्य फल की सिद्धि कराने में समर्थ प्रकरणों के उपकार्योपकारक भाव को अपनी अलौकिक प्रतिभा से प्रस्तुत करता है। जैसे उत्तररामचरित के प्रथम अह के चित्रदर्शन प्रकरण में जो सीता की भावी सन्तानों के लिए राम द्वारा जम्भकास्त्रसिद्धि प्रदान की गई, प्रधान कया की पञ्चम अङ्क में जृम्भकास्त्रव्यापार द्वारा उपरकारक सिद्ध होती है। ___४. जहाँ कवि एक ही पदार्थस्वरूप को प्रत्येक प्रकरण में अपूर्व रसों एवं अलङ्कारों को योजना से रमणीय बना कर बार-बार प्रस्तुत करता है जो सहृदयहादकारिता में किसी प्रकार बाधक नहीं हो तो वहाँ चौथी प्रकरणवक्रता होती