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४. आत्मा का विभु-परिमाण न मानने पर आत्मा का समस्त परमाणुओं के साथ संयोग न हो सकेगा और संयोगाभाव के कारण शरीर-निर्माण के लिए अपेक्षित परमाणुओं का आकर्षण न हो सकेगा। आकर्षण न होने के कारण शरीराभव हो जायेगा और सभी को मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी । इस प्रकार संसार का ही अभाव हो जायेगा । अत: आत्मा को विभु-परिमाण ही मानना चाहिए । ५. आत्मा को देह-परिमाण मानने पर शरीर के खण्डन से आत्मा के खण्डित होने की
आपत्ति भी आयेगी। ६. यदि आत्मा को शरीर-परिमाण मानें तो वह शरीर में प्रवेश ही नहीं कर सकता, क्योंकि परिमाणविशिष्ट एक समान मूर्त पदार्थ, दूसरे मूर्त पदार्थ में प्रविष्ट नहीं हो
सकेगा।" ७. आत्मा को शरीर-परिमाण मानने पर आत्मा में सावयवत्व व कार्यत्व की आपत्ति
आयेगी। अतः आत्मा को व्यापक मानना ही उचित है। ८. आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए यह भी तर्क दिया जाता है कि जिस
प्रकार आकाश के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है, उसी प्रकार आत्मा के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है।
इन उपरोक्त तर्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा विभपरिमाण वाला है। विभु-परिमाण की समीक्षा
__ न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए जो अनेक युक्तियां दीं वे सभी तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती : १. इन दार्शनिकों ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना और उस गुण को व्यापक बताकर आत्मा को व्यापक सिद्धकिया । लेकिन आचार्य मल्लिषेण कहते हैं कि अदृष्ट के सर्वव्यापी होने में कोई प्रमाण नहीं है तथा अदृष्ट को मानने से ईश्वर
के कर्तृत्व पर आघात होता है ।२२ २. भिन्न-भिन्न देशों में मंत्रादि का प्रभाव भी आत्मा के व्यापकत्व को सिद्ध नहीं करता क्योंकि आकर्षण, उच्चाटन आदि गुण मंत्र के नहीं हैं । ये गुण मंत्र आदि के अधिष्ठातृ देवताओं के हैं। मंत्र के अधिष्ठाता देव ही आकर्षण, उच्चाटन आदि से प्रभावित स्थान में स्वयं जाते हैं। ३. आत्मा को अमूर्त व नित्य होने से आकाश की तरह व्यापक कहना भी उचित नहीं ., क्योंकि यह कोई व्याप्ति-नियम नहीं कि जो नित्य हो वह व्यापक भी हो । परमाणु
आदि नित्य है पर व्यापक नहीं । इसी प्रकार आत्मा के अमूर्त होने के कारण उसे व्यापक कहना ठीक नहीं क्योंकि परमाणुओं के रूपादि गुण अमूर्त और नित्य होते हुए भी व्यापक नहीं हैं।" ४. न्याय-वैशेषिक चिन्तकों का यह कहना है कि आत्मा को व्यापक न मानने से
खण्ड २२, अंक ४
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