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होना चाहिए ।
२. जिनस्तोत्र संग्रह - गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, प्रकाशक- दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) प्रथम संस्करण, १९९२, पृष्ठ ५३२, मूल्य --- ६४ रुपये ।
वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला में आर्ष मार्ग का पोषण करनेवाले विविध भाषाओं के लघु- बृहत् ग्रंथों का प्रकाशन होता रहा है । प्रस्तुत प्रकाशन इस ग्रंथमाला का १३५वां पुष्प है जो आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित उपयोगी जिन स्तोत्रों का संग्रह है । संग्रह में यथास्थान स्तोत्रों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दे दिया गया है ।
प्रथम खण्ड में णमोकार मन्त्र के साथ पूर्व आचार्यों द्वारा रचित २१ स्तोत्र दिए गए हैं । द्वितीय खण्ड में ४४ स्तुतियां हैं जो सभी ज्ञानमती माताजी की रचनाएं हैं । तृतीय खण्ड में जिन सहस्र नाम, तीस चौबीसी और श्री तीर्थंकर स्तवन है । चौथे खण्ड में कल्याणकल्प तरु स्तोत्र है जिसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दे दिया गया है । पांचवें खण्ड में पात्र केसरि स्तोत्र, गणधर बलय मंत्र, निषीथिका वंदना और ऋषिमण्डल स्तोत्र दिया गया है और छठे खण्ड में वैराग्य - भावना और समाधिमरण पाठ मुद्रित हुआ है ।
ग्रंथ की प्रस्तुति और प्रकाशन बहुत आकर्षक है और यह संग्रह ग्रंथ साधुजन, विद्वज्जन और सामान्य साधक - सभी के लिए परम उपयोगी बन पड़ा है । ३. द्रव्य संग्रह - ( आचार्य नेमिचन्द्र ), दोहानुवाद-मुनि समता सागर, प्रथम संस्करण - १९९६, प्रकाशक 'विजय कुमार मनीष कुमार' आदि चार फर्मे, पिण्डरई, पृष्ठ ७४ । मूल्य नहीं दिया गया ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने प्रस्तुत ग्रंथ की ५८वीं गाथा के अनुसार गागर में सागर भरकर द्रव्य संग्रह कह दिया; किन्तु उनकी कही ५७ गाथाओं में जिस प्रकार भगवान् जिन तीर्थंकर द्वारा वर्णन किए जीव-अजीव द्रव्य का खुलासा हुआ है। उसे समझना आसान नहीं है । दोहानुवादकर्ता मुनि समता सागर ने स्वयं स्वीकार किया है कि ब्रह्मदेव सूरि कृत संस्कृत टीका का अनेकों बार स्वाध्याय करके उन्होंने इस ग्रंथ को हृदयंगम किया है और अपने पूज्य गुरुवर आचार्य विद्यासागर के दो बार किए गए पद्यानुवाद से अनुप्राणित होकर उन्होंने ये दोहे लिखे हैं ।
दोहे सरल, सुगम और सुन्दर बन पड़े हैं । कुछ उदाहरण देखिए जीव भोक्तृत्व - फलभोगे व्यवहार से सुख-दुःख कर्मन रूप | निश्चय से चिदभाव ही भोगे आत्म अनूप ॥ मोक्ष तत्त्व - सर्व कर्म क्षयकार जो भाव, भाव वह मोक्ष । तथा सर्वथा आत्मा से पृथक् कर्म द्रव मोक्ष ॥ सम्यग्ज्ञान - संशय विभ्रम मोह बिन स्वपर स्वरूप बताय । सो साकार अनेक विध सम्यक् ज्ञान कहाय ॥ चारित्र - दूर अशुभ से, शुभ लगे यह जिन कहे चरित्र ।
समिति गुप्ति व्रत रूप नय कह व्यवहार पवित्र ।।
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तुलसी प्रशा
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