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खगोलविद्याः
मास और राशियों के निर्धारण
ग्रीनविच के ज्योतिषज्ञों ने भारतीय फलित ज्योतिष के ऊपर आक्षेप करते हुए यह तर्क उपस्थित किया है कि फलितशास्त्र में १२ ही राशि क्यों मानी गई है ? जबकि एक और नक्षत्रपुंज तेरहवीं राशि बन सकता है। इस प्रश्न का एक उत्तर यह है कि इस तथाकथित राशि - नागधारी नक्षत्रपुंज में तारे बिलकुल मंद प्रकाश हैं, अत: यह राशि नहीं कही जा सकती। इस उक्ति का विवेचन प्रो. प्रियव्रत ने मार्त्तण्ड पंचांग में कर दिया है । प्रस्तुत लेख में प्रो. शक्तिधर शर्मा ने यह स्पष्ट किया है कि वस्तुतः राशि चक्र से सम विभाग ही बनेंगे, विषम नहीं । अर्थात् १३ वां विभाग अथवा राशि बनने की कोई संभावना ही नहीं है । न कोई इसका सैद्धांतिक आधार ही है । अतः ऐसा प्रश्न उठाना और आक्षेप करना ही बेबुनियाद और सिद्धांत-विरुद्ध है ।
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* शक्तिधर शर्मा
- संपादक
गत दिनों में 'ब्रिटेन एस्ट्रोनोमिकल सोसाइटी' द्वारा भारतीय फलित ज्योतिष पर आक्षेप किया गया था । ऐसे ही आक्षेप पिछली १२ वीं, १३ वीं तथा १७ वीं खीस्त शताब्दियों में भी अरब तथा यूरोपीय ज्योतिषियों ने किये, उत्तर यही था और है कि नागधारी मण्डल के तारे मन्द हैं । यदि इन नागधारी (ophinchus ) एवं वृश्चिक दोनों आकृतियों से बने तारा - विन्यासों को राशि मान लिया जाए तो भी यह राशि दो आकृतियों (वृश्चिक एवं नागधारी) वाली एक ही राशि होगी न कि ये दो राशि मानी जाएगी ! क्योंकि राशि की परिभाषा ३०° या सिद्धांततः लगभग ३० दिनों में सूर्य द्वारा भुक्त क्रांतिवृत खण्ड ही है । अतः इससे राशि संख्या नहीं बढ़ेगी। नागधारी एवं वृश्चिक राशि दोनों ही लगभग एक ही भोगांशों (या विषुवांशों) के आयाम में है । वृश्चिक एवं नागधारी १६ से १७h तक के विषुवांश आयाम में है, अन्तर केवल इतना है कि वृश्चिक का अधिक भाग क्रांति-वृत्त से दक्षिण की ओर तथा नागधारी का अधिकांश भाग क्रांतिवृत्त से उत्तर की ओर ( वृश्चिक के सापेक्ष उत्तर में ) नाड़ी बृत से आगे तक स्थित है । अतः ८वीं राशि दो आकृतियों से युक्त एक ही राशि है । तेरहवीं राशि नहीं । हमारे विचार में तो यह आपत्ति ही गलत है - आक्षेप करने वाले के ध्यान मैं यह नहीं है कि राशि संख्या सदैव १२ होगी और प्रत्येक का मान ३० ही है । यह बात नीचे स्पष्ट की जाती है । राशि विभाग ३० से कम ज्यादा सम्भवतः कभी नहीं माना गया। इस बात को स्पष्ट करने की पद्धति से परिचय आवश्यक है । आक्षेपकर्ता ब्रिटेन ज्योतिषज्ञों का इस पद्धति पर ध्यान नहीं गया। क्योंकि आज से कई हजार वर्ष
खण्ड २२, अंक ४
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