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" (१६) तत्फलं तु कुरुक्षेत्रे, कुर्वन्ति स्तवनादि ये ।
___तत्राप्य हेतु दुष्प्रापं, लभन्ते ते ध्रुवं फलम् ।। " (१७) इत्येवमादिकुशलं, पूर्वमुक्तं श्रुतर्षिभिः ।
तदेवात्र कुरूक्षेत्रे, लभन्तु बहवो जनाः ।। " (१८) यानि तीर्थसहस्राणां, कुरूक्षेत्रे फलानि च ।
अत्र निश्शेषास्तानि, सन्तु सन्निहितानि च । " (१९) अर्द्धयोजनमायाममस्य तीर्थस्य कीतितम् ।
यं यं प्रदेशमागम्य, स महापाप पावनः ॥ (२०) ये शरीर परित्यागं, कुर्वन्ति स्ववनं च ये ।
ते तृष्णया च सेवन्ते, पिवन्ति च समाहिताः॥ " (२१) येषामग्निमरवादीनां, दानानां नैक सम्पदाम् ।
फलानि यान्यशेषाणि, प्राप्यन्तां तानि ते जनाः ॥ " (२२) पापिष्ठाखिल पुरूषा, मुच्यन्तां बहुपापतः ।
किं पुनर्धर्म निरता, महातीर्थ निषेवनात् ।। उक्त प्रशस्ति चौकोर पत्थर स्तंभ (कीत्तिमुख स्तंभ) पर चारों ओर उत्कीर्ण है जिसमें प्रथम भाग (एक पाव) के अधिकांश अक्षर अस्पष्ट हो गए हैं, किन्तु उस भाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिव की स्तुति के बाद महाराजाधिराज श्री देवानीक को महाराजा युधिष्ठिर, इन्द्र, धनंजय, इन्द्रद्युम्न आदि के सदृश अनेकों यज्ञ कार्यकर्ता और यशस्वी बताया गया है।
प्रशस्ति के श्लोक संख्या १०, ११, १२, १३, १४ आदि प्रायः ज्यों के त्यों महाभारत-महाकाव्य, वामन-सरोवर, मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण आदि में समुपलब्ध होते हैं । इन श्लोकों में प्रथम दो श्लोक, ऋषि कुरू और वासुदेवकृष्ण का कुरुक्षेत्र से संबंध बताते हैं।
प्रशस्ति का छठा श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना देता है। प्रभासादि में पुण्योपम कार्य करने की बात कह कर इस श्लोक में राजा देवानीक के प्रशस्ति लेखक ने सरस्वती नदी का प्रभास क्षेत्र से संबंध बताया है जो सरस्वती नदी के सीधे रण ऑफ कच्छ में जाने की ओर इंगित करता है ।
खण्ड २२, अंक ४
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