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९. हे साधो ! मैं दोनों हाथ जोड़कर आपकी अनन्त भक्ति करता हूं । मेरी भक्ति को स्वीकार कीजिए । मैं अब आपको छोड़ना नहीं चाहता
१०. आपकी कृपा से शुद्ध हुआ मेरा यह वृत्त है कि सूर्य रूपी आपकी शुभ्रकान्ति से मेरा हृदय कमल खिल गया है और वह सब अन्धकार नष्ट हो गया है। जो अनिष्ट करता है ।
११. इसलिए सत्य ज्ञान में दत्तचित्त और साधुओं द्वारा सदा वन्दित हो रहे गुणालंकारों को धारण करने के लिए मैं बारंबार उनकी
पूज्य कालूगणि वन्दना करता हूं ।
१२. पूज्य कालूगणि ! आप अद्वितीय साधु हैं और महान् पुरुषों द्वारा बारंबार वन्दनीय हैं । कृपया मेरे पर प्रसन्न होकर इस दासानुदास की सेवा को भी ग्रहण करने की कृपा कीजिए ।
१३. हे भगवन् ! लोक में आपकी कीर्तिगाथा को सुनकर मेरे चित्त में यह विश्वास जम गया है कि आप मान्य हैं, सदा सेवनीय हैं, परम पूज्य हैं और संसार- मुक्ति के सेतु हैं ।
१४. हे भगवन् ! आप जैसे
आप काल के भी काल,
करता हूं। जिस साधु
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से धर्म की प्राप्ति होती है और पाप कालुष मिटता है । जिसको समस्त लोक वंदना करता है ऐसे मुनीश्वर को मैं भक्ति भावना से वन्दना करता हूं ।
१६. संसार में सर्वत्र पाप दीखता है और साधु में सर्वत्र धर्म्म की उपलब्धि होता है । इसलिए मैं चाहता हूं कि सब कुछ देने वाली साधु की भक्ति में, मैं सदा रमा रहूं ।
१७. हे भगवन् ! संसार-ताप को भोग भोग कर मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है किंतु आपके सद्वचनों से वह पुनः सात्विकी बन रही है इसलिए मैं आपकी वंदना करता हूं ।
१८. मैं दीन अनाथ हूं और आप पूज्यगण्य, महेश, तत्त्वज्ञ, सनाथ और कृपालु हैं इसलिए पूज्य कालूगणि मैं आपकी वन्दना करता हूं ।
१९. भक्तों में प्रीति रखने वाले और मोह-माया को विनष्ट कर अपने शिक्षा करने वाले गुरुओं को सदा भूमि पर शिर
भाव से संसार को ज्ञान प्रदान रख कर बारंबार प्रणाम हैं । २०. जिनमें धर्म की पूर्ण रीति है और जिनमें काम और मोह का अभाव है ऐसे पूज्य कालूगणि को पूर्ण भक्ति से मैं सदा वन्दना करता हूं ।
प्रस्तुति - परमेश्वर सोलंकी
धर्म्म धुरीण धर्माचार्य कहीं दृष्टिगत नहीं हैं । अकाल कालूराम हैं; इसलिए मैं आपकी वंदना
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तुलसी प्रशा
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