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जैन-बौद्ध संघों में--प्रवज्या-ग्रहण के हेतु
निर्मला चौरडिया
भारतीय संस्कृति की श्रमण-परम्परा सन्यास मार्ग की समर्थक है। गृह-त्याग कर संन्यास धर्म का पालन करना श्रमण-परम्परा की मुख्य विशेषता रही है। जैन एवं बौद्ध धर्म श्रमण-परम्परा के मुख्य निर्वाहक रहे हैं। संन्यास के क्षेत्र में प्रवेश करने का पुरुषों के समान स्त्रियों को भी अधिकार दिया गया है। यद्यपि वैदिक परम्परा में, कलिकाल में स्त्री के लिए संन्यास को वर्ण्य कहकर उसे प्रवजित होने से रोका गया किन्तु प्राचीनतम ग्रन्थों-वेद, उपनिषद् आदि में संन्यासिनियों के यत्र-तत्र सन्दर्भ अवश्य उपलध हैं। भगवान् बुद्ध नारी जाति को संघ में ससंकोच ही प्रवेश दे पाये जबकि जैन परम्परा में भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर ने नारी जाति को उन्मुक्त भाव से संघ में प्रवेश दिया।
प्रव्रज्या-ग्रहण में वैराग्य भाव तथा आध्यात्मिक चिन्तन की प्रमुखता तो रहती ही है साथ ही अनेक सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक कारण भी निमित्तभूत होते हैं । प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं कारणों पर विचार किया गया है।
स्थानांग तथा उसकी टीका में ऐसे सामान्य कारणों का उल्लेख है, जिनसे लोग दीक्षा-ग्रहण करते थे.-- . .
१. छन्दा-अपनी या दूसरों की इच्छा से ली जाने वाली। २. रोषा- क्रोध से ली जाने वाली । ३. परिघूना-दरिद्रता से ली जाने वाली। ४. स्वप्ना- स्वप्न के निमित्त से ली जाने वाली या स्वप्न में ली जाने
वाली। ५. प्रतिश्रुता-पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली । ६. स्मारणिका-जन्मान्तरों की स्मृति होने पर ली जाने वाली। ७. रोगिणिका-रोग का निमित्त मिलने पर ली जाने वाली। ८. अनाहता-अनादर होने पर ली जाने वाली। ९. देवसंज्ञप्ति - देव के द्वारा प्रतिबुद्ध होकर ली जाने वाली । १०. वत्सानुबन्धिका-दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली। ११. इहलोक प्रतिबद्धा--ऐहलौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए ली जाने
वाली।
बंर २२, अंक ४
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