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नग्नता क्या है ?
__ दिगम्बर एवं अवधूत आदि की भांति उपकरण न रखना ही नाग्न्य परीषह नहीं है। प्रवचनोक्त नाग्न्य क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं। प्रवचन में दो प्रकार के कल्प बताए गए हैं--(१) जिनकल्प और (२) स्थविर कल्प । स्थिवर कल्प में परिपक्व अवस्था पाकर व्यक्ति क्रमशः धर्म-श्रवण करते हुए प्रव्रज्या ग्रहण करता है। प्रव्रज्या में बारह वर्ष तक सूत्र-ग्रहण करने के पश्चात् बारह वर्ष तक अर्थ-ग्रहण करता है । फिर अनियतवासी बनकर बारह वर्षों तक देशाटन करता है। इस देशाटन के दौरान ही वह अपने शिष्यों को तैयार करता है। शिष्य-सम्पदा की निष्पत्ति के अनन्तर वह अभ्युद्यत-विहार (उग्र विहार) में प्रवृत्त होता है और तीन प्रकार से आत्मोन्नति कर सकता है -- (१) जिनकल्प, (२) शुद्ध परिहार और (३) यथालन्द । इनमें जिनकल्प प्रतिपत्ति योग्य व्यक्ति पहले तपः सत्त्व आदि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है और भावितात्मा होकर वह दो प्रकार से परिकर्म करता है। प्रथम, यदि करपात्र बनने की क्षमता आ जाती है तो वह उसके अनुरूप प्रवृत्ति करता है । अर्थात् करपात्री हो जाता है। द्वितीय, यदि करपात्र होने की क्षमता नहीं होती तो वह प्रतिग्रहधारी परिकर्म करता है। करपात्री के लिये रजोहरण और मुख वस्त्रिका की उपधि आवश्यक है।
इस प्रकार इष्ट नाग्न्य में कल्पग्रहण से तीन प्रकार, चार प्रकार अथवा पांच प्रकार और प्रतिग्रहधारी के नौ प्रकार आवश्यक हैं और कल्पग्रहण से दस प्रकार, ग्यारह प्रकार अथवा बारह प्रकार की उपधि आगम अभिहित है। दस प्रकार की समाचारी में आप्रच्छन, मिथ्यादुष्कृत, आवश्यकी, निशीथिका और गृहस्थ-उपसम्पदा -ये पांच परिपालनीय हैं। उपरितनी में आवश्यक आदि तीन प्रकार की समाचारी हैं। श्रुत सम्पदा में नौवें पूर्व की आचार वस्तु जघन्यतः पालनीय है। काल-परिज्ञान सम्पूर्णतया और असम्पूर्णतया दस पूर्वो का ज्ञान उत्कर्ष पूर्वक किया जाता है।
वे कल्पधृत वज्रकुड्य, वज्रर्षभ और नाराच संहनन वाले होते हैं और क्षेत्र आदि अनेक भेद से उनकी स्थिति होती है। उनका जन्म और अस्तित्व सभी कर्म भूमियों में होता है। संहरण के कारण वे कर्मभूमि और अकर्मभूमि- दोनों में हो सकते हैं। अवसर्पिणी काल के तीसरे-चौथे आरे में जन्म तथा तीसरे, चौथे, पांचवें आरे में उनका अस्तित्व रहता है । चौथे में जन्म और पांचवें में प्रव्रजन भी होता है । उत्सर्पिणी काल में दुःषम आदि तीनों कालों में जन्म और दो में अस्तित्व हो सकता है । इसीलिये सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र में जिनकल्प प्रतिपत्ति होती है ।
खण्ड. २२, अंक ४
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