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संदर्भ :
१. कुरुवंश में कुरू के बाद क्षेमकं तक ४८ राजाओं के नाम मिलते हैं । दक्षिणभारत के ताम्रपत्रों में क्षेमक के बाद नरवाहन, शतानीक और उदयन के नाम हैं और ५९ उत्तराधिकारियों के बाद १६ और राजाओं के नाम लिखे गए हैं । तदुपरांत राजा जयसिंह के प्रपोत्र, रणराग के पौत्र, पुलकेशीपुत्र श्री कीर्तिवर्मा का काल शक संवत् ४८९ लिखा है । ३२ वर्ष प्रति पीढ़ी के हिसाब से यह सही है और भारतीय कालगणना के अनुरूप है । कुरू राजा युधिष्ठिर से १६ पीढ़ी पूर्व हुआ जिससे १३० पीढ़ी के ४१६० वर्ष अथवा कुरू से राजा युधिष्ठिर तक ५०० वर्ष + ३१७९+४८९=४१६८ वर्ष ही होते हैं ।
इसी प्रकार उत्तर कुरूओं का कालक्रम और बंशावली शोधी जानी चाहिए । महाभारत में उत्तर - कुरूओं का उल्लेख है --
उत्तरे कुरुभिः सार्धं दक्षिणाः कुरवस्तथा । विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा देवर्षि चारणः ॥
स्वयं
( आदि पर्व १०८.१० ) ऐतरेय ब्राह्मण (८.१४) में उत्तरकुरुओं के अभिषिक्त राजा कहे गए हैं'उदीच्यां दिशि ये के च परेण हिमवन्तं जनपदा उत्तर कुरूव उत्तर भद्रा इति वे राज्या यं व तेऽभिषिच्यन्ते ।' ऐसे ही और भी अनेक उल्लेख हैं । प्रस्तुत वट लौंग काउ - प्रशस्ति में कौरव्य राजा धनंजय का नाम है और प्रभासादि क्षेत्रों में राजा देवानीक द्वारा पुण्य कर्म करने का उल्लेख है | २. देखें
जाबा
- शतपथ ब्राह्मण के प्रवर्ग्य काण्ड में उल्लिखित वाक्य - ' तेषां कुरूक्षेत्रं देवयजनमास । तस्मादाहु कुरूक्षेत्रं देवानांदेवयजनम्" इसी प्रकार लोपनिषद् में भी - ' यदनु कुरूक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।'
संभवत: पुष्कर और कुरूक्षेत्र में बनीं इन वेदियों पर निरन्तर यज्ञ-याग होते. रहते थे । मैत्रायणी संहिता में यहां देवताओं द्वारा आहुति देने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता के अनुसार भी यहां देवों ने आहुतियां दी थीं ।
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३. पंचविंश ब्राह्मण (२५.१३.३ ) के अनुसार पुष्कर से कुरूक्षेत्र तक ब्रह्मवेदियों की
सीमा थी
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प्रजापतेर्वे दिय्यावत् कुरूक्षेत्रमिति
- किन्तु वामन पुराण (२३.१८ - २० ) के काल में पांच बेदियां बन चुकीं थीं
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वेदयो लोकनाथस्य पंच धर्मस्य सेतवः । प्रयाग मध्यमावेदिः पूर्वावेदिगया शिरः ॥ विरजा दक्षिणावेदिरनन्त फलदायिनी । प्रतीची पुष्करावेदिस्त्रिभिः कुण्डेरलंकृता । समन्तपंचका चोक्ता वेदिरेवोत्तराख्यया ॥
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तुलसी प्रशा
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