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४. धातु पारायण ५. षड्दर्शन समुच्चय ६. बाल बोध व्याकरण ७. बाल बोध व्याकरण की वृत्ति तथा ८. सूरिमन्त्र सारोद्धार
आचार्य मेरुतुंग द्वारा रचित मेघदूत तत्कालीन संस्कृति का स्पष्ट दर्पण है। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण के भाई नेमिनाथ, जो कि जैन धर्म के २२वें तीर्थंकर हैं, की जीवन गाथा है जिसमें उस समय की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक स्थिति के दर्शन होते हैं। उपलब्ध दूत या सन्देश काव्य साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ कालिदास का मेघदूत है। यह मेघदूत जहां शृंगार रस से परिपूर्ण है वहीं प्रथम जैन संदेश काव्य जैन मेघदूतम् में कवि ने अपनी प्रतिभा के बल पर शृंगार रस के वातावरण को शान्तरस में मोड़कर एक नई काव्य-परम्परा का स्रजन किया है । अपने संदेश काव्य में आचार्य मेरुतुंग ने कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ाये हैं अपितु संदेश प्रेषण का कार्य भारत की मर्यादामयी नारी के माध्यम से सम्पन्न कराया गया है । जैनमेघदूत की राजीमति एक आदर्श भारतीय ललना है जो विवाह से पूर्व ही विरह दुःख की अनुभूति करती है और अन्ततः तप एवं त्याग की ओर उन्मुख होकर साध्वी बन जाती है। पाणिग्रहण के लिए जाते हुए नायक नेमिनाथ का चित्त भी त्रस्त पशुओं के मर्मबेधी चीत्कार को सुनकर कराह उठता है, वे संसार की दशा पर शान्त भाव से विचार करते हुए परमार्थ पथ के पथिक बन जाते हैं। ४ सर्गों में विभक्त इस १९६ पद्ययुक्त रचना में प्रिय वियोग से व्यथित राजीमति मेघ के द्वारा प्राणाधिक नेमिनाथ के पास अपना संदेश पहुंचाने के विचार से अपना मर्मस्पर्शी सन्देश गिरनार पर्वत पर स्थित समाधिस्थ नेमिनाथ के पास भेजती है। घोर श्रृंगार की धारा को वैराग्य की ओर मोड़ देना साधारण प्रतिभा का कार्य नहीं है इस सन्देश काव्य में अभिव्यंजित शान्तरस की सुधा धारा रागद्वेष से ग्रस्त मानव को शाश्वत् सन्देश, (आनन्दानुभूति) प्रदान करने की क्षमता रखती है।
- मेघदूत और जैनमेघदूत दोनों काव्य ग्रंथों को आमने-सामने रखकर देखा जाय तो स्पष्टतः दोनों के वर्ण्य विषय, उद्देश्य आदि में बहुत अन्तर प्रतीत होता है । एक ओर भोग-विलास ही जीवन का चरम काव्य है तो दूसरी ओर तप और त्याग के समान कुछ स्पृहणीय नहीं । एक ओर प्रेम और सौन्दर्य का मादक स्वरूप मानव हृदय को सम्मोहित करने में समर्थ है तो दूसरी ओर विरति और क्षणभंगुरता जीवन के सत्य का भान कराती है। एक ओर प्रकृति के मनोरम चित्रों का अक्षय भण्डार है तो दूसरी ओर प्रकृति पर छिटकता हुआ दृष्टिपात । एक ओर शृंगार का परम अभिराम रूप नेत्रों में इन्द्रधनुषी रंगों को उत्पन्न करता है तो दूसरा उन्हें शान्तरस की पावन सरिता में निमज्जित कर एक लोकोत्तर विश्राम की अनुभूति कराता है। एक ओर विरह की मार्मिक व्यंजना है तो दूसरी ओर विरह के संयत रूप में दर्शन होते हैं। राजीमति मेघ से प्रार्थना करती है कि वह उसका सन्देश उचित अवसर देखकर नेमि
- तुलसी प्रज्ञा
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