________________
महाभारत-महाकाव्य में कुरूक्षेत्र की अनेक प्रशस्तियां हैं । वहां लिखा है
पृथिव्यां नैमिषं तीर्थमन्तरिक्षे च पुष्करम् ।
त्रयाणामपि लोकानां कुरूक्षेत्रं विशिष्यते ॥ कि पृथिवी पर नैमिष, अन्तरिक्ष में पुष्कर और त्रिविष्टप (तीनों लोक-पृथिवी, अन्तरिक्ष और दिव) में कुरूक्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है । महाभारत के वन पर्व (अध्याय-८३) में कुरूक्षेत्र का माहात्म्य भी दिया गया है
ततो गच्छेत् राजेन्द्र ! कुरूक्षेत्रमभिस्टुतम् । पापेम्यो यत्र मुच्यन्ते दर्शनात्सर्वजन्तवः ।। कुरूक्षेत्रं गमिष्यामि कुरूक्षेत्रे वसाम्यहम् । य एवं सततं ब्रूयात्सर्व पापैः प्रमुच्यते ।। पांसबोपि कुरूक्षेत्रे वायुना समुदीरिता । अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमांगतिम् ।। दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च । ये वसन्ति कुरूक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे । तत्र मासं वसेद्वीरः सरस्वत्यां युधिष्ठिरः । यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्ध चारणाः ॥ गन्धर्वाप्सरसो यक्षाः पन्नगाश्च महीतले । ब्रह्मक्षेत्रं महापुण्यमभिगच्छन्ति भारत ।। मनसाप्यभिकामस्य कुरूक्षेत्र युधिष्ठिरः । पापानि विप्रणश्यन्ति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ गत्बाहि श्रद्धयायुक्तः कुरुक्षेत्रं कुरूद्वह ।
फलं प्राप्नोति च तदा राज सूर्याश्वमेधयोः ।। इसी प्रकार नारदीय पुराण (११.६४.२३-२४) में भी कुरुक्षेत्र का माहात्म्य लिखा है । इसी पुराण के उत्तरार्द्ध (अध्याय-६५) में, कुरूक्षेत्र क्षेत्र में लगभग सौ तीर्थ गिनाए गए हैं। कुरूक्षेत्र का वर्चस्व
___शतपथ ब्राह्मण की एक कथा में अथर्वा के पुत्र दधीचि द्वारा इन्द्र को गुप्त विद्या सिखाने का उल्लेख है । इन्द्र ने विद्या सीखने के वाद दधीचि को सावचेत किया कि वह यह विद्या अब और किसी को न सिखाये नहीं तो वह, उसका सिर काट देगा। अश्विनीकुमारों ने उनकी यह वार्ता सुन ली और दधीचि को कहा कि वह उन्हें गुप्त विद्या सीखादे । वे उसकी इन्द्र से रक्षा करेंगे। तदनुसार अश्विनीकुमारों ने दधीचि का सिर अलग करके उसके घोड़े का सिर लगा दिया और उससे गुप्त विद्या सीख ली। इन्द्र को जब यह मालूम हुआ तो उसने दधीचि का सिर-छेदन कर दिया किंतु अश्विनी कुमारों ने उसका मूल सिर वापस लगा दिया ।
_ इस प्रकार दधीचि का घोड़े का सिर कट कर जहां गिरा उस स्थान को 'शर्याणावत्' कहा गया। बाद में इसे प्लक्षसर अथवा प्लक्ष प्रासवण कहा गया। शतपथ
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org