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पूर्व अपनाई गई पद्धति आज हम सब के लिये ओझल हो गई । ज्योतिष के प्राचीनतम इतिहास में आज के विद्वान प्रयत्न ही नहीं करते -- उन्हें तो यह ज्ञान विरासत में प्राप्त है।
भ्राता प्रियव्रतजी ने दीप्ति स्थिरांक (Magnitudes)लेकर इसका विवेचन किया जो कि तर्कसंगत सर्वप्रथम प्रशस्य प्रयास है । उन्होंने राशियों के १५०,३०,४५°विभागों का (सम एवं विषम विभागों का) उल्लेख भी किया है । इस संदर्भ में मुझसे भी बहुत से विद्वानों ने प्रश्न किये । नक्षत्रों के अर्ध, सम तथा अध्यर्ध (१५ मुहूर्त ३० मुहूर्त तथा ४५ मुहूर्त) विभागों की तरह ये विभाग रहे होंगे । यह सोचना भी स्वाभाविक है। परन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । इस प्रकरण में वस्तुस्थिति का स्पष्टीकरण राशिज्ञान की प्रायोगिक पद्धति (Practical Methodology) से होगा। मासों की परिभाषा
प्राचीन काल से ही मात्र चन्द्रमा की कलाओं से मास परिभाषित हुए । चन्द्रमा की कलाएं अमावस से पूर्णिमा तक बढ़ती हैं और पूर्णिमा से अमावस तक कलाएं क्षीण होती हैं । इस वृद्धिक्षय में २९.५३ दिन यानी लगभग ३० दिन लगते हैं। अत: मास ३० दिन का माना गया। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि चन्द्रमा ही मास बनाने वाला है (चन्द्रो व मासकृत्) न कि सूर्य । सूर्य की गति मास परिभाषित नहीं करती, उससे तो वर्ष परिभाषित हुआ । मनुष्य ने पहिले चन्द्रमा की कलाओं से मास-परिभाषा अन्तिम रूप से लगभग ३० दिन की स्वीकार कर ली। इसी कालावधि में सूर्य की गति का अध्ययन शुरू हुआ।
सूर्य चाकचाक्य से युक्त देदीप्यमान पिण्ड है । अतः इसके वेध से प्राचीन काल में मनुष्य इस की गति के मार्ग का अध्ययन नहीं कर सकता था । इसकी चौन्ध में मनुष्य किसी भी तारे को नहीं देख सकता। अतः यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार से चन्द्रमा की नक्षत्रों में गति का अध्ययन किया गया वह पद्धति सूर्य की गति के अध्ययन में बिलकुल उपयोगी नहीं । चन्द्रमा के योगतारा जो कि चन्द्रमा के साथ योग (युति) करने वाले तारे हैं, उनके साथ सूर्य की युति प्रत्यक्ष दृश्य नहीं लगती। इसलिए सूर्य की गति के अध्ययन के लिये सूर्यास्त के समय से सूर्योदय तक के काल (अर्थात् रात्रि) का उपयोग किया गया होगा । रात्रि के समय सूर्य की राशि से १८० अन्तर वाली राशि से पीछे की पांच या छः राशि ही दिखाई देती है ।
जब सूर्य अस्त होता है तो उसकी राशि से सप्तम राशि पूर्व में उदित हो रही होती है। जब सूर्य मेष के प्रारम्भ में हो तो सूर्यास्त समय पूर्व में तुला राशि दृष्टिगत होगी। १ मास तक प्रति रात्रि देखने से ३० के अन्दर की आकृति की पहिचान कर ली गई जो कि तुला राशि कहलाई। अगले मास सूर्य वृष राशि में होने पर वृश्चिक राशि से परिचय होगा । इस प्रकार सभी राशियों का ज्ञान हुआ होगा। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित है कि एक या क्रमशः अधिक राशियों से परिचय होने पर एक ही रात में कई राशि दृश्य होंगी । इस प्रकार राशि-चक्र के काफी भाग की पहिचान
तुलसी प्रज्ञा
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