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साधु-नित्य शुद्ध चारित्र जो साधे शिवभग रूप ।
साधु वे दृग ज्ञान से भरे नमूं सुख कूप ॥ भारतीय चिन्तन परंपरा में अद्वैत, द्वैत, वैत, पंच अथवा नव और पच्चीस तत्त्वों की मान्यता में जैन दर्शन द्रव्य के छह प्रकार मानता है
जीवाजीवप्रभेद से कहे गये छः द्रव्य ।
काल बिना पांचों रहे अस्तिकाय हे भव्य ।। अर्थात् जीव-अजीव भेद से द्रव्य छह प्रकार का है और काल द्रव्य को छोडकर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं। काल द्रव्य एक प्रदेशी है किन्तु शेष पांचों-संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी हैं। आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष और पाप-पुण्य, जीव-अजीव के विशेष भेद हैं ।
जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों में केवल पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जिसमें मिलने अथवा पृथक् होने की क्रिया होती है। यह पुद्गल शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थोल्य, संस्थान, भेद, तप, छाया, आतप और उद्योत पर्याय से दस रूपों में प्रकट होता है। अर्थात् जैन दर्शन में पदार्थ स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु में बंट सकता है। धर्म और अधर्म द्रव्य पुद्गलों की गति और ठहराव को संभव बनाते हैं जबकि आकाश सभी पदार्थों को स्थान देता है। वस्तुतः यह विषय बहुत जटिल है। इस दृष्टि से द्रव्य संग्रह की विस्तृत व्याख्या और आधुनिक विज्ञान निष्कर्षों से उसकी तुलना की जानी चाहिए। एलीमेंट और कम्पाउण्ड, रेडियो एक्टिविटी, इलेक्ट्रोन, मोलेक्यूज, एटम् आदि से जैन पुद्गलवाद और आधुनिक परमाणुवन्द की समीक्षा होने से यह विषय अधिक स्पष्ट होगा और जैन दर्शन की प्रामाणिकता सर्वविदित हो सकेगी। ४. शीला मंजूषा, संकलन कर्तृ-आर्यिका विशालमती एवं आर्यिका विज्ञानमती
माताजी, प्रकाशक-जयंती प्रसाद जैन, चमनलाल जैन, ज्ञान गंगा प्रकाशन, २०४ प्रकाश चेम्बर, दरियागंज, देहली, द्वितीयावृत्ति-२३.७.१९९६, मूल्य २१ रुपये।
'शील मञ्षा ' की उक्ति है कि शील सौख्यकर, प्रमोदजनक, कुलप्रशंसक, सारभूत गुण, लक्ष्मीदाता, शुभकर, यशः कर और भव तरण का प्रमुख साधन है। इसलिए भव्य जनो ! तीनों प्रकार के शील का पालन करो। डॉ. चेतन प्रकाश पाटनी का कहना है कि एक श्रावक के अनुरोध पर पूज्य आर्यिका विशालमती माताजी ने शील मञ्जूषा का प्रणयन किया है। इस मञ्जूषा में मनुष्य को जगाने और अन्तर्यात्रा पर ले जाने का पाथेय बन्द है। जीवात्मा अपने शील को पाने के लिए क्या करे और क्या न करे ? इसी का विवेचन इस कृति में है।
क्षुद्रता का परित्याग और ब्रह्मचर्य का पालन-इन विषयों का विशद् विवेचन यहां उपलब्ध है। मंजूषा के प्रथम अध्याय में ब्रह्मचर्य का स्वरूप, दूसरे में विवाह का प्रयोजन, तीसरे में संतान को संस्कारित करने के उपाय, चौथे में मैथुन का स्वरूप, पांचवें में मैथुन के दुष्परिणाम, सातवें में ब्रह्मचर्य रक्षा के उपाय और आठवें अध्याय में शील रक्षा में तत्पर प्रसिद्ध पुरुष एवं नारी रत्नों का परिचय दिया गया है।
सर्वांश में पुस्तक संग्रहणीय एवं पठनीय है। भौतिकता की चकाचौंध से कर्तव्य
खण्ड २२, अंक ४
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