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लिखा है कि आत्मा को अणुरूप मानने का कोई औचित्य नहीं है। उनका मत है कि यदि आत्मा को अणु-परिमाण माना जाये तो शरीर के जिस भाग में आत्मा रहेगा उसी भाग में होने वाली संवेदना का अनुभव कर सकेगा और सम्पूर्ण शरीर में होने वाली संवेदनाओं का अनुभव उसे न हो सकेगा।" यदि यह कहें कि अणुरूप आत्मा अलातचक्र के समान पूरे शरीर में तीव्र गति से घूमकर समस्त शरीर में सुख दुःखादि का अनुभव कर लेता है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चक्कर लगाते हुए आत्मा जिस समय, जिस अंग में पहुंचेगा उस समय उसी अंग की संवेदना का अनुभव कर सकेगा । इसके अलावा उस समय वही अंग सचेतन रहेगा और शेष अंग अचेतन हो जायेंगे। ___ यदि आत्मा का अणु आकार माना जाए तो भिन्न इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान एक ही समय में नहीं हो सकेगा लेकिन नींबू देखकर रसना इन्द्रिय में विकार उत्पन्न होना सिद्ध करता है कि युगपद् दो-तीन इन्द्रियों का ज्ञान होता है। अत: आत्मा अणु-परिमाण नहीं है । . स्वामी कार्तिकेय ने अणु परिमाण की समीक्षा में कहा है कि 'आत्मा को अणुरूप मानने पर आत्मा निरंश हो जायेगी और ऐसा होने पर दो अंशों के पूर्वोत्तर में संबंध न होने के कारण कोई भी कार्य सिद्ध न हो सकेगा।" इसलिए आत्मा को अणु रूप मानना व्यर्थ है । कर्मोदय से प्राप्त शरीर के बराबर ही आत्मा का आकार होता है, यही मानना उचित है। क्या आत्मा विभु-परिमाण वाला है ?
न्याय-वैशेषिक,सांख्य-योग, शांकर वेदान्त आदि दार्शनिक आत्मा को विभुपरिमाण वाला सिद्ध करते हैं। गीता में भी आत्मा को व्यापक कहा गया है
तस्मादात्मा महानेव नवाणु नोपि मध्यमः ।
आकाशवत् सर्वगतो निरंश: श्रुति सम्मतः ॥" आत्मा को विभु-परिमाण मानने वाले दार्शनिकों ने आत्मा के विभु-परिमाण को सिद्ध करने के लिए अनेक युक्तियां प्रस्तुत की हैं : १. आत्मा को व्यापक मानने वाले न्याय वैशेषिकों की युक्ति है कि अदृष्ट सर्वव्यापी है और वह आत्मा का गुण है । गुण गुणी से पृथक् नहीं होता, अतः अदृष्ट के
सर्वव्यापी सिद्ध होने से आत्मा का भी सर्वव्यापकत्व सिद्ध होता है।" २. स्याद्वादमंजरी में आचार्य मल्लिषेण ने न्याय-वैशेषिकों की ओर से शंका उठाते हुए लिखा है-कि भिन्न देशों में प्रयुक्त मंत्रादि का आकर्षण, उच्चाटन आदि प्रभाव सैकड़ों योजन की दूरी पर भी देखा जाता है । मंत्रों का दूर देश में प्रभाव
आत्मा के विभुत्व की सिद्धि करता है ।" ३. आत्मा के विभुत्व की सिद्धि में उनका एक तर्क यह भी है कि आत्मा आकाश की तरह अमूर्त व नित्य द्रव्य है। आकाश व्यापक है । अतः अमूर्त व नित्य आत्मा भी आकाश की तरह व्यापक है।
लसी प्रज्ञा
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