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नहीं हैं, वे लघीयस्त्रय में हैं । हम यहां केवल राजवार्तिक में वर्णित जीव की परिभाषा पर विचार करेंगे ।
राजवार्तिक उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की टीका है । इसमें गद्यात्मक रूप में सर्वार्थसिद्धि टीका के अधिकांश वाक्यों को स्वतंत्र रूप में नये रचे वार्तिक के रूप में प्रस्तुत कर उनकी व्याख्या की है। संभवतः यह नैयायिक विद्वान उद्योतकर के न्याय वार्तिक का अनुकरण है । तत्वार्थसूत्र के अनेक प्रकरणों में आगमिक परंपरा अनुमोदित हुई है, (कर्मबन्ध के पांच हेतु, प्रत्यक्ष के दो भेद, अनुयोग द्वार आदि), अतः अकलंक ने भी अपनी टीका में प्रायः उसका अनुसरण किया है।
जीब शब्द
राजवार्तिक में तत्त्वार्थसूत्र के विषयों के अनुसार सात तत्त्वों का भाष्य रूप में तार्किक एवं अनेकांती विवरण है। मनोरंजक बात यह है कि उमास्वामी के मूलसूत्रों में "आत्मा" शब्द का प्रयोग नहीं है, वहां प्रत्येक स्थल पर " जीव" शब्द ही प्रयुक्त हुआ है । यह भी ११ स्थलों पर आया है। इनमें केवल २-३ स्थानों पर ही जीव की परिभाषा दी गई है । इससे अनेक बातें ध्वनित होती हैं। प्रथम, उमास्वामी के युग तक जैनों में आत्मा शब्द लोकप्रिय नहीं हो पाया होगा । इस शब्द की स्थिति ठीक उसी प्रकार की लगती है जैसे उत्तरवर्ती काल में "अस्तिकाय" के लिये " द्रव्य" शब्द का समाहार हुआ या "पर्याय" के लिये "विशेष" शब्द का प्रचलन हुआ । लगता है कि टीकाकारों के युग में, कम से कम दक्षिण में "आत्मा" शब्द प्रचलन में था । फलतः जैसे दार्शनिक शब्दावली की समकक्षता के स्थापन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष को इन्द्रिय ( एवं अनिद्रिय) के रूप में भी माना गया, परमाणु को व्यवहार रूप में भी माना गया, उसी प्रकार, अन्य दर्शनों के साथ तुलना की दृष्टि से जीव के लिये "आत्मा" से अभिहित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई ।
परिभाषा के प्रारंभिक रूप
जैन दर्शन में जीव शब्द जिस घृणा और भर्त्सना से वर्णित किया गया है, उसे देखकर जहां आचार्य की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का आभास होता है, वहीं उनकी अतिशयोक्ति अलंकार एवं वीभत्स रस में प्रवीणता भी प्रकट होती है । ये वर्णन आज के मनोवैज्ञानिक प्रचार तंत्र को भी मात करते हैं ।
सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक - आचारांग में जीव के वाचक ४ शब्द हैं-प्राण, भूत, जीव एवं सत्व । भगवतीसूत्र और शीलांकाचार्य ने इनके जो अर्थ किये हैं, वे नीच सारणी - १ में दिये गये हैं । भगवती ने इनमें २/१ में २ शब्द और जोड़े हैं और बाद मैं जीव के २३ पर्यायवाची बताये हैं । इनमें "आत्मा" भी एक पर्यायवाची है । इसका अर्थ निरंतर संसार भ्रमण - स्वभावी बताया गया है (अभयदेव सूरि ) । फलत: जीव का प्रारंभिक अर्थ तो संसारी जीव ही रहा है । अन्य दर्शनों से "आत्मा" शब्द के समाहरण पर भी उसका प्रारंभिक जैन अर्थ संसारी जीव ही रहा है, उसका अन्य अर्थ (शुद्ध जीव, जीव- कर्म आदि) उत्तरवर्ती विकास है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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