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अति सततं गच्छति व्याप्नोति वा आत्मा" अर्थात् जो सर्वव्यापी हो वह आत्मा है । हलायुधकार ने जाग्रदादि सभी अवस्थाओं में व्याप्त होनेवाले को आत्मा कहा है - अतति सन्ततभावेन जाग्रदादि सर्वावस्थासु अनुवर्तते ।" देहेन्द्रियादिकं सवं परार्थमतति व्याप्नोति अधितिष्ठति इत्यात्मा” अर्थात् देहेन्द्रियादि सभी पदार्थों में विद्यमान रहता है वह आत्मा है । अत्यते लभ्यते मुक्तैरित्यात्मा" अर्थात् जो मुक्त पुरुषों के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह आत्मा है ।
जैन वाङ्मय में उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार ने लिखा है- 'अतति - सन्ततं गच्छति शुद्धिसंक्लेशात्मक परिणामान्तराणीत्यात्मा" अर्थात् जो विविध भावों में परिणत होती है वह आत्मा है । समयसार के टीकाकार ने 'आत्मा' शब्द को अत् धातु से व्युत्पन्न माना है- दर्शन ज्ञान चारित्राणि अतति इति आत्मा" अर्थात् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को सदा प्राप्त हो वह आत्मा है । द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ने 'आत्मा' शब्द का विस्तार से विवेचन किया है-अतधातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्त्तते । गमन शब्दे - नात्र ज्ञानं भण्यते 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात्', तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु समन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्र मन्दादि रूपेण आ समन्तादतति वर्त्तते यः स आत्मा । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्य रासमन्तादतति वर्त्तते य: स आत्मा" अर्थात् अत धातु का प्रयोग गमन अर्थ में होता है। यहां पर गमन शब्द का अर्थ ज्ञान होता है क्योंकि सभी गत्यर्थक धातुएं ज्ञानार्थक होती हैं । इस कारण से ज्ञान सुखादि गुणों में सम्यक् रूप से विद्यमान रहता है वह आत्मा है । अथवा शुभ-अशुभ रूप जो मन, वचन और काय के व्यापार हैं उन्हें सम्पादित कर यथासंभव तीव्र मन्दादि रूप से जो वर्तता है वह आत्मा है, अथवा उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों द्वारा जो पूर्ण रूप से विद्यमान रहता है वह आत्मा है ।
आत्मा के पर्याय - उपनिषदों एवं जैन शास्त्रों में आत्मा के अनेक पर्यायों का उल्लेख मिलता है । छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा शब्द के लिए सुतेजा, वैश्वानर (५.१२.१) विश्वरूप (५.१३.१), सत्य (६.८.७, ६.९.४), मन ( ७.३.१ ) चित्त ( ७.५.२), ब्रह्म, अमृत (८.१४.१) आदि शब्दों का विनियोग किया गया है । बृहदारण्यकोपनिषद में ब्रह्म ( २.४.६, १९), पुरुष ( २.५.१४ ), आकाश ( ३.२.१३ ), अन्तर्यामी, अमृत (३.७.३), प्राज्ञ ( ४.३.२१) अविनाशी ( ४.५.१४), तैत्तिरीयोपनिषद् में आकाश (१.७.१, २.२.१) योग ( २. ४.१ ) आनन्द ( २.५.१), श्वेताश्वरोपनिषद् में अनन्त, विश्वरूप, अकर्ता (१.९) सर्वव्यापी (१.१६), आदि शब्दों का प्रयोग आत्मा के लिए किया गया है ।
जैन वाङ्मय में भी आत्मवाची अनेक शब्दों का निर्देश मिलता है । भगवती सूत्र में जीव, प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ, वेद, चेता, जेता, आत्मा, पुद्गल, मानव, कर्ता, विकर्ता, जंतु, योनि, स्वयंभू आदि अनेक आत्मवाचक शब्दों का उल्लेख मिलता है । टीकाग्रंथों में जीव, प्राण, सत्त्व शरीरभृत और आत्मा आदि शब्दों को एकार्थक स्वीकार किया गया गया है । धवला में आत्मा के अनेक नामों का उल्लेख है । १४ जीव, कर्ता, वक्ता, प्राणी, भोक्ता, पुद्गल, वेत्ता, विष्णु, स्वयंभू, शरीरी, मानव, सक्ता,
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तुलसी प्रशा
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