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अर्थात् प्रणव धनु है, सोपाधिक आत्मा बाण है और ब्रह्म (परमात्मा) उसका लक्ष्य है । उसको सावधानतापूर्वक (अप्रमत्त होकर) वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए। यहां पर अप्रमत्तता और तन्मयता दोनों की ओर निर्देश किया गया है।
आचारांगकार ने लिखा है :
वीरेहिं एवं अभिभूय दिनै संजतेहिं सया जतेहिं सया अप्पमत्तहिं ।
अर्थात् सदैव अप्रमत्त रहने वाले जितेन्द्रिय वीर पुरुषों ने चित्त के समग्र द्वन्द्वों को जीतकर परम सत्य का साक्षात्कार किया है। आगे ऋषि कहता है-धीर व्यक्ति को क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए-धीरे मुहुत्तमपि णो पमायए" क्योंकि प्रमत्त को सब तरह से भय रहता है अप्रमत्त को कभी भय नहीं होता है :--सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं"८ अर्थात् प्रमादी को सब जगह भय होता है अप्रमादी को कोई भय नहीं होता है। इसलिए आत्म-साधक को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए-'उट्ठिए नो पमायए। ____ आचारांग सूत्र में निर्दिष्ट है कि आत्मदर्शी, (आ. सूत्र ३.३६), आत्मनिग्रही (३.६४), सत्यान्वेषी (३-६६), द्रष्टा (३.८७), शरीर के प्रति अनासक्त (४.२८), अनिदानी (४.२८) काम भोगों में उदासीन (३.४७), समता धर्म में निरत (३.५५) कामनामुक्त (३.६५) तितिक्ष (२.११४) विषय विरक्त (४.६), मेधावी (२.२७) ज्ञानी (३.५६) साधक (२.७८) धीरपुरुष (२.११) संयमी (२.३५) अलोभी (२.३६) सम्यग्दर्शी (२.५३) तत्त्वदर्शी (२.११८) अपरिग्रही (२.५७) धर्मकथी (२.१७४), कुशल (२.१८२) आदि गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी हो सकता
--(अगले अंक में समाप्य)
खण्ड २२, अंक ४
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