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चौदह वर्ष के लिए वन में जाने वाले लक्ष्मण ने अपनी पत्नी को सूचित करना भी उचित नहीं समझा, न ही बन जाने के पश्चात् चौदह वर्ष तक कोई संदेश ही प्रेषित किया।
राम की विरह-व्यथा भी अपनी पत्नी के प्रति लक्ष्मण को व्यथित नहीं कर सकी, न ही राम से संदेश प्रेषण की सीख ही उन्होंने ली। इस तरह लक्ष्मण पर भी यह आरोप है कि भ्रातृप्रेम एवं अग्रज भ्राता के प्रति कत्तंव्य-निर्वाह में वे भले ही सफल रहे हों, परन्तु एक कुशल पति नहीं बन पाए।
महाकवि भास भी इस मत से सहमत हैं कि पत्नी से दूर स्थित पति के मुख से उसका स्मरण मात्र भी होता है तो वह पत्नी के लिए अति सुखकर होता है । वासवदत्ता लता मण्डप में छुपी हुई जब उदयन के मुख ये बसन्तक से वार्तालाप के प्रसंग में अपनी प्रशंसा सुनती है तो कृतार्थ हो जाती है और कह उठती है
"भवतु-भवतु । दत्तं वेतनमस्य परिखेदस्य । अहो अज्ञातापासोऽप्यत्र बहुगुणः सम्पद्यते ।"६
कवियों की परम्परा एक मत से यह स्वीकार करती है कि वियोगावस्था में राजसी सुख भोग अत्यन्त दुखकर हो जाते हैं । भौतिक वस्तुओं की तो बात ही अलग है, वहां तो प्रकृति की स्वाभाविकता भी कष्ट पहुंचाने लगती है। शीतल चांदनी में भी दाहकता की प्रतीति होने लगती है । वन-गमन में प्रसंग में राजसी सुख भोग और वन की असह्य वेदना दोनों एक साथ उपस्थित होते हैं तो सीता उनमें से राजसी सुखभोग का त्याग कर वन की असह्य वेदना को स्वीकार करती है और कहती है कि
प्रसादाने विमान वहायसगतेन वा।।
सर्वापस्थागता भतु : पादच्छाया विशिष्यते ॥ महाकवि कालिदास भी इस तथ्य से परिचित हैं कि विरहिणी स्त्री के लिए सुख-भोग के सारे उपस्कर दुःखकर हो जाते हैं, इसी कारण यक्ष की यक्षिणी आभूषणादि का परित्याग तो कर ही देती है, साथ ही पुष्प की माला भी त्याग देती है ।
"आये वद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा । शापस्यान्ते विगलित शुचा तां भयोद्वेष्टनीयाम् । स्पर्शक्लिष्टामयमित नखेनासकृत्सारयन्ती,
गण्डाभोगात्कठिन विषमानेकवेणीं करेण ॥' लेकिन वाल्मीकि की ऊर्मिला को राजसी सुख भोग के बीच ही अपने विरह के दिन काटने होते हैं। कैसे सहा होगा उसने महलों में रहकर विरह की इस एकान्त व्यथा को ? विरह-व्यथा को और तीव्र कर देने वाले इन सुख-भोगों का त्याग भी तो वह नहीं कर सकती थी ? कहां जाएगी वह अयोध्या का राजप्रासाद त्याग कर और उसका यह त्याग भी क्या उचित होगा ? क्या पातिव्रत्य धर्म के अनुकूल होगा ? ऊर्मिला की जो विरह-व्यथा पाठकगण को भी सहज ही द्रवित कर देती है उससे कवि कैसे मुख मोड़ लेता है ? यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है ? मिला इतनी सरल हृदया है कि वेदना की ऊर्मि को मन में दबाये हुए कभी कुछ नहीं कहती, सदैव मौन
खण्ड २२, अंक ४
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