________________
आत्मा जिज्ञासा के साथ अविच्छिन्न श्रद्धा की अनिवार्यता स्वीकृत है। श्रद्धासम्पन्न पुरुष ही ज्ञान का अधिकारी हो सकता है - इस तथ्य को सबने स्वीकार किया है । उपनिषद्, गीता एवं जैन आगमों में अनेक ऐसे प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें 'श्रद्धावान्' ही ज्ञान का अधिकारी होता है। यह घोषणा उद्घष्ट है-प्रब्रूहि त्वं श्रद्धदानाय मह्यम् ।
मुण्डकोपनिषद् में श्रद्धावान् के साथ आत्मविद्या के अधिकारी के अन्य गुणों का निर्देश किया गया है
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः
स्वयं जुह्वत एकषि श्रद्धयन्तः । तेषामेवैषां ब्रह्मविद्यां वदेत
शिरोव्रतं विधिवास्तु चीर्णम् ॥ अर्थात् जो अधिकारी क्रियावान, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ और स्वयं एकर्षि नामक अग्नि में श्रद्धापूर्वक हवन करने वाले हैं तथा जिन्होंने विधिपूर्वक शिरोव्रत का अनुष्ठान किया है उन्हीं को ब्रह्मविद्या कहनी चाहिए। गीताकार गोविन्द की उक्ति भी इसमें प्रमाण है
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥" अर्थात् तत्पर, संयतेन्द्रिय और श्रद्धावान् ही ज्ञान को प्राप्त करता है । ज्ञान प्राप्ति के बाद वह शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
जैन दार्शनिकों ने अनेक स्थलों पर श्रद्धावान् की महनीयता को स्वीकार किया है । आचारांग का ऋषि साधकों को सतर्क करता है
जाए सखाए निक्खते
तमेव अणुपालिया। विजहित्तु विसोत्तियं
सट्ठी आणाए मेहावी ॥२ अर्थात् श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है। आत्मविद्या का अधिकारी होता है। दर्शन पाहुडकार ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है-सद्दहमाणस्स सम्मत्तं अर्थात् श्रद्धावान् को ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।
विद्या-प्राप्ति के लिए अप्रमतत्ता और तन्मयता अधिकारी के दो गुण स्वीकार किए जाते हैं। प्रमादहीन व्यक्ति ही उच्च-विद्या का अधिकारी होता है । श्वेताश्वरोपनिषद् का ऋषि आत्म-विद्या के साधक के लिए प्रमाद रहित होकर मन को नियंत्रित करने का निर्देश देता है। मुण्डकोपनिषद् में इस तथ्य को एक रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया गया है
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
तुलसी प्रज्ञा
३२०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org