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जीव की परिभाषा और अकलंक
जैन न्याय, प्रमाणवाद एवं अनेकान्तवाद के प्रकाशक भट्ट अकलंक का नाम सुनते
बताया गया है ।
ही न्याय और सिद्धांत के विद्वानों को महान गौरव का अनुभव होता है । यद्यपि सिमोवा जिले में प्राप्त दसवीं सदी के एक शिलालेख में उनका नाम पाया गया है, फिर भी यह दुर्भाग्य की बात है कि उनका प्रामाणिक जीवन चरित्र हमें उपलब्ध नहीं है और हम प्रभाचन्द्र के कथाकोष, मल्लिषेण- प्रशस्ति एवं राजावली कथा से ही उनके जीवन की कतिपय घटनाओं का विवरण पाते हैं । उनकी प्रशंसा में श्रवणबेलगोला में अनेक अभिलेख हैं । ६७ वें अभिलेख में साहसतुंग को उनका संरक्षक इनका जीवन काल ७२० ७८० ई० माना जाता है। इनके जीवन काल में महाराज दंतिदुर्ग साहसतुंग ( ७२५ - ७५७), अकालवर्ष शुभतुंग (७५७-७३), गोविन्द द्वितीय ( ७७३-७९) एवं ध्रुव ( ७७९-९३) नामक चार राजाओं ने राष्ट्रकूट क्षेत्र (महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में आंध्र, कर्नाटक ) में प्रभावी राज्य किया । इसी काल में राजस्थान - गुजरात में आचार्य हरिभद्र ( ७००-७० ई०), उत्तर प्रदेश के कन्नोज और बंगाल के आचार्यं वप्पभट्टि ( ७४३ - ८३८ ई० ) और बदनावर, मध्यप्रदेश में आचार्य जिनसेन प्रथम ने जिनधर्म प्रभावना एवं साहित्य सृजन किया। हरिभद्र और जिनसेन तो उनके विषय में जानते थे, पर संभवत: वप्पभट्टि इनसे अपरिचित रहें होंगे । अकलंक का युग शास्त्रार्थी युग था । प्रायः आचार्यों का बौद्धों से शास्त्रार्थं होता था । वप्पभट्टि ने ६ महीने तक चले शास्त्रार्थ में बौद्ध विद्वान् वर्धनकुंजर को हराया था । हरिभद्र ने भी महाराज सूर्यपाल की सभा में बौद्धों को हराया । अकलंक ने भी साहसतुंग के समय में बौद्धों को हराया। उन्होंने उड़ीसा में शास्त्रार्थ का डंका बजाया था । अकलंक के ४ मौलिक और २ टीका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । मौलिक ग्रंथों में प्रमाण नय और निक्षेपों की विषद चर्चा है । यह ऐसी उच्च स्तरीय एवं तर्कशास्त्रीय चर्चा है कि इसी के कारण “प्रमाणमकलंकस्य " की उक्ति प्रसिद्ध हुई है । यह हर्ष की बात है कि इन सभी मौलिक ग्रन्थ सटिप्पण प्रकाशित हो चुके हैं। इनके टीकाग्रन्थों ( १ ) समंतभद्रकी आप्त मीमांसा पर अष्टशती - ८०० श्लोक प्रमाण टीका एवं (२) उमास्वामी के तत्वार्थ सूत्र पर राजवार्तिक टीका हैं। इनमें अकलंक की तर्कशैली, प्रश्नोत्तर शैली और अनेकांतवाद - आधारित निरूपण शैली मनोहारी है। जैन न्याय के तो वे जनक हैं । विचारों के विकास की दृष्टि से, ऐसा प्रतीत होता है कि अकलंक ने टीका ग्रन्थ पहले और मौलिक ग्रंथ बाद में लिखे होंगे ! उदाहरणार्थ, राजवार्तिक में प्रत्यक्ष के दो भेद
खण्ड २२, अंक ४
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नन्दलाल जैन
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