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करते हुए कहा-"राजन् ! आपके यश की धवलिमा को चारों तरफ फैलता देखकर मुझे आशंका हो गई कि इस धवलता से कहीं मेरी प्रियतमा के बाल भी धवल (सफेद) न हो जाएं। इसमें कल्पना को इतना तान दिया गया है कि हंसी आने के अतिरिक्त राजा के पौरुष के सम्बन्ध में हृदय में किसी प्रकार के भाव की उत्पत्ति नहीं होती। यहां कल्पना भाव को सहरा देने नहीं आई, बल्कि अपना ही खिलवाड़ दिखाने आई है। जिस प्रकार घोड़ा सवार को फेंककर कभी-कभी अकेला ही दौड़ता चला जाता है, उसी प्रकार ऊपर के उदाहरण में भी कल्पना भाव को फेंककर आगे निकल गई है। इस प्रकार की कल्पना को "कहा" कहा जाता है। ऊहात्मक काव्य में वह शक्ति नहीं होती जो हृदय में किसी प्रकार की हिलोर पैदा कर सके। बुद्धि-तत्त्व
___ काव्य में बुद्धि-तत्त्व कल्पना की तरह भाव को सहारा देने के लिये गौण रूप से रहता है। उसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से काव्य में नहीं किया जाता। दर्शनशास्त्र में तर्क या बुद्धि के आधार पर बाल की खाल निकाली जाती है किन्तु काव्य में तो कई बार बुद्धि की अवहेलना कर दी जाती है। इसीलिये 'सेक्शपीयर' ने कवि और उन्मत्त को एक कोटि में रखा है । जो लोग तार्किक हैं, उन्हें प्रायः काव्य पसन्द नहीं आता क्योंकि काव्य में हृदय पक्ष की ही प्रधानता रहती है न कि मस्तिष्क पक्ष की। कोई भी महाकवि बुद्धिमत्ता का चमत्कार दिखाने के लिये काव्य लिखने में प्रवृत्त नहीं होता पर इसका यह अर्थ नहीं कि काव्य में बुद्धि तत्त्व का प्रवेश ही निषिद्ध है। भावों के प्रकाशन में कभी-कभी असंगति रह जाती है। कवि को सदा इस बात का ध्यान रहता है कि मैं कोई ऐसी बात न कह दूं जिसे पढ़ या सुनकर लोग कहें-"यह कैसे हो सकता है ?" इस विचार से वह अपनी बात को इस ढंग से कहता है जिससे उसकी बात बुद्धिसंगत हो जाए । बुद्धि का काव्य में इतना ही स्थान है । इस तथ्य को अधिक स्पष्ट करने के लिये यहां एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। कालिदास के 'मेघदूत' काव्य में एक विरही यक्ष मेघ के द्वारा अपनी प्रियतमा को संदेश भेजता है । संदेश में वह मेघ से अपने विरह की बहुत-सी बातें कहता है। सारा 'मेघदूत' काव्य विरहजन्य पीड़ा की मधुर अनुभूतियों से भरा पड़ा है। काव्य के अन्त में प्रश्न पैदा होता है कि यक्ष के संदेश के उत्तर में मेघ ने क्या कहा ? जिसे संदेश ले जाने के लिये कहा जाये, वह हां या ना कुछ तो कहता ही है। अब यदि कालिदास मेघ से कुछ उत्तर दिलवाते हैं तो बुद्धि आपत्ति करती है। मेघ कैसे बोल सकता है ? विरह में व्याकुल हुआ मनुष्य तो चाहे जिस किसी जड़ या चेतन को ज्ञानवान प्राणी की तरह सम्बोधित कर सकता है, पर जड़ वस्तु उत्तर कैसे दे सकती है ? सीता के चुराये जाने पर राम खगों, मृगों, मधुकरों आदि से सीता का पता पूछते फिरते हैं, उसी तरह यक्ष भी मेघ से पूछ सकता है, पर मेघ उत्तर कैसे दे सकता है ? इस कठिनाई को दूर करने के लिये कालिदास बुद्धि का सहारा लेते हैं। वे यक्ष से ही मेघों को कहलवा देते हैं-हे मेघ ! तुम प्रार्थना करने पर चातकों को बिना शब्द किये ही-बिना बोले ही हां या ना कहे बिना ही-जल दे दिया करते हो, क्योंकि किसी काम को खण्ड २२, अंक ४
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