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करते हुए लिखा है कि उपमान के साथ उपमेय के गुण का साम्य प्रतिपादित करना ही उपमालङ्कार है।' वामन ने अपने ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में उपमा को मूल अलङ्कार मानते हुए समस्त अर्थालङ्कारों को उपमा के ही अन्तर्गत स्वीकार किया है। ६. रुद्रट
आचार्य रुद्रट का 'काव्यालङ्कार' काव्यशास्त्र का अत्यन्त प्रौढ़ एवं सशक्त ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में उन्होंने अर्थालङ्कारों को वास्तव, औपम्य अतिशय तथा श्लेष चार वर्गों में विभाजित कर उपमालङ्कार को औपम्य वर्ग का अलंकार माना है। उपमालङ्कार का लक्षण रुद्रट ने अपने पूर्वाचार्यों की भांति ही प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार उपमान और उपमेय दोनों में समान 'गुण' अथवा साधारण धर्म का सद्भाव होना ही उपमालङ्कार है ।" उन्होंने साधारण धर्म के सद्भाव को उपमा का आवश्यक अंग माना है। ७. कुन्तक
आचार्य कुन्तक भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति प्रस्थान के प्रवर्तक माने जाते हैं। अलङ्कारवादी न होने पर भी उन्होंने अलङ्कारों का विस्तृत विवेचन किया है, आचार्य कुन्तक ने उपमा अलंकार का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया है
___ 'वर्ण्य वस्तु के स्वभाव की मनोहारिता की सिद्धि के लिए उत्कृष्ट मनोहरता वाली किसी भी वस्तु के साथ उसकी तुलना करना ही उपमालङ्कार है। इससे स्पष्ट होता है कि उनके अनुसार उपमा की सार्थकता वर्ण्य के सौन्दर्य आदि के प्रभाव की वृद्धि में है। ८. भोजराज
भोजराज की साहित्यिक क्षेत्र में 'सरस्वती-कंठाभरण' तथा 'शृंगारप्रकाश' नामक ये दो विशालकाय कृतियां उपलब्ध हैं। उन्होंने अलङ्कारों के शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत तीन वर्ग स्वीकार कर उपमा अलङ्कार को उभयालङ्कार माना है । उपमालङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की उपमा-धारणा को ही स्वीकार किया है। भोजराज ने दो पदार्थों के बीच अवयव सामान्य को उपमा में आवश्यक माना है । उसकी उपमा का स्वरूप 'अग्निपुराण' की उपमा के स्वरूप से मिलता है। ९. अग्निपुराणकार
अग्निपुराण को भारतीय विद्या का विश्वकोश माना जाता है। अग्निपुराण के ३४४ वें अध्याय में अर्थालङ्कारों का निरूपण इस प्रकार किया गया है
स्वरूपमथ सादृश्यमुत्प्रेक्षातिशयावपि ।
विभावना विरोधश्चहेतुश्च सममष्टधा ।। - इसमें अर्थालङ्कारों का महत्त्व बतलाते हुए अलङ्कारहीन काव्य को विधवा के सदृश कहा गया है।" अग्निपुराण में उपमा का लक्षण इस प्रकार दिया है-- वण २२, बंक ४
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