________________
शरीरी आदि पद आते हैं जो धवला और कुंदकंद के नामों में नहीं है। इससे प्रकट होता है कि श्वेताम्बरों की तुलना में दिगम्बर अधिक अमूर्त आत्मवादी हैं। यह आत्मवाद भौतिकवाद का उत्तरवर्ती रूप लगता है । भाव प्राणों की धारणा से जीव के लक्षणों में कुछ व्यापकता आई है।
उक्त भौतिक परिभाषाओं के अतिरिक्त जीव की भावात्मक या मनोभावात्मक परिभाषा भी है जिसमें कर्म-जन्य ४ भाव-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा औदयिक एवं कर्म-निरपेक्ष पांचवां पारिणामिक भाव-कुल ५ भाग समाहित हैं । यद्यपि अनुयोगद्वार में ६ नामों के अन्तर्गत ६ भाव बताए हैं पर वहां उन्हें जीव का असाधारण लक्षण नहीं कहा है । सम्भवतः यह उमास्वामी का योगदान है कि उन्होंने जीव को मनोभावात्मक विशेषताओं से भी लक्षित किया। भाव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं -पर्याय, परिणाम, वर्तमान स्थिति आदि । पर जीव लक्षण के सम्बन्ध में चित विकार का मनोवैज्ञानिक अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है । फलतः जीव वह हैं जिसमें कर्म एवं कर्मोदय के कारण अनेक प्रकार के मनोभाव भी पाए जाते हैं। यह मनोभावी परिभाषा तत्वार्थ सूत्र के टीकाकारों के अतिरिक्त धवला तथा कुंदकुंद के कुछ ग्रन्थों में पाई जाती है । "उपयोग जीव का लक्षण है" की प्रश्नावली में यह बताया गया है कि भौतिक लक्षण अनात्भूत या सहकारी लक्षण है, प्रमुख या आत्मभूत लक्षण नहीं हैं। इस भौतिक परिभाषा में जीव के भौतिक/भावात्मक तत्व (शरीर, योनि, अवगाहन आदि) तथा क्रियाएं (योग) एवं कर्म-जन्य मनोभाव समाहित होते हैं। फलतः यह परिभाषा मात्र भाव प्राणी पर लागू नहीं होती। अध्यात्मवादी उपयोगात्मक परिभाषा
जीव की दूसरी परिभाषा संवेदनशीलता से संबंधित है। संभवतः आचार्यों की यह मान्यता है कि उपरोक्त भौतिक एवं भावात्मक परिभाषा जीव की मौलिक संवेदनशीलता के कारण ही है । इसको शास्त्रों में अनेक रूपों में व्यक्त किया गया है। हमें उमास्वामी के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये कि उन्होंने इस कोटि की अनेक परंपरागत परिभाषाओं को एकीकृत कर उसे "उपयोग" पद के अन्तर्गत समाहित कर दिया । ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने उत्तराध्ययन की परिभाषा को अपना आधार बनाया होगा। इस कोटि की विविध परिभाषाओं के अध्ययन से पता चलता है कि ये अनेक रूपों में व्यक्त की गई हैं : १. उपयोग लक्षण २. चेतना लक्षण ३. चेतना एवं उपयोग लक्षण ४. ज्ञान स्वभाव ५. ज्ञान-दर्शन स्वभाव ६. सुख-दुख ज्ञान उपयोग स्वभाव ७. ज्ञान-दर्शन सुख-दुख, तप, चरित्र, वीर्य स्वभाव और ८. भाव प्राण घारण स्वभाव । कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में चेतना और उपयोग दोनों को जीव का लक्षण बताया है। इससे यह अनुमान लगता है कि एक समय ऐसा था जब इन दोनों शब्दों में अर्थभेद रहा होगा । वस्तुतः चेतना सामान्य गुण है जिसकी अभिव्यक्ति का रूप उपयोग है। यह ज्ञान, दर्शन, सुखानुभूति, वीर्यानुभूति या आन्तरिक ऊर्जानुभूति आदि अनेक रूपों में होती है। पूज्यपाद भी जीव की अनेक प्रकार की चेतना मानते हैं एवं आत्मा को
२८०
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org