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प्रेम, विषय, महत्वाकांक्षा आदि) के उपभेद ७२ हैं। लेकिन संख्या कुछ भी हो, परिमाण की दृष्टि से संसार में सुख की मात्रा दुख से कई गुनी अधिक है । नहीं तो, "जीवणं पियं" क्यों मानता ? फलतः संसार की दुखमयता की धारणा तर्कसंगत विचार चाहती है । यह नकारात्मक प्रवृत्ति, निवृत्ति मार्ग में, निषेधात्मक आचारवाद है। यदि हम संसार को सांत और सुखमय मानें, तो हमारी प्रवृत्ति सकारात्मक एवं सुख को बढ़ाने की होगी। इस मान्यता से जैनों के मूल उद्देश्य का भी को विरोध नहीं होगा क्योंकि अनन्त सुख सांत सुख का वहिर्वेशन मात्र है :
__ संसारी जीव (कर्म) आत्मा-अनंत सुख (मोक्ष)
दुखमयता की धारणा ने हमें यथास्थितिवादी बनाये रखा है। यही कारण है कि हम संसार को सदैव दुखमय बनाकर रखे हुए हैं और व्यक्तिवादिता का पल्लवन कर रहे हैं । न्यायाचार्य ने ठीक ही कहा है कि हम संसार की ४ गतियों में से मनुष्य और पशु गति को तो प्रत्यक्ष ही देखते हैं। इनकी निंदा भी करते हैं । पर, फिर भी उन्हीं में पुनः उत्पन्न होना चाहते हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है ? परिभाषा के विविध रूप
जैनाचार्यों ने संसारी जीव की इस सामान्य बुद्धि पर सूक्ष्मता से विचार किया और अनेकांत-प्रतिष्ठापन युग में द्रव्य-भाव, व्यवहार-निश्चय, अंतरवाह्य, आत्मभूतअनात्मभूत आदि की धारणाएं प्रस्तुत कर बताया कि प्रत्येक वस्तु के अनेक रूप होते हैं । उसका स्वरूप सापेक्ष दृष्टि से ही जाना जा सकता है । सम्पूर्ण स्वरूप तो सर्वज्ञ ही जानता है, पर भाषा की सीमाओं के कारण वह भी कहा नहीं जा सका । वह अवक्तव्य ही होता है । इसीलिये जीव की परिभाषाएं अनेक रूप और शब्दावली में पाई जाती हैं । इस आधार पर जीव और आत्मा सह-सम्बन्धित हो गए हैं। जीव को आत्मा की एक दशा मान लिया गया। जब जीव को देहबद्ध रूप में माना जाता है, तब उसकी परिभाषा ऐसी होती है जो आत्मा पर लागू नहीं भी हो। जब उसे देहमुक्त रूप में माना जाता है, तब वह आत्मा हो जाता है और परिभाषा अधिक मूलभूत हो जाती है। अनेक आचार्य एक ही वस्तु की भिन्न-भिन्न परिभाषाओं को विभ्रमण मानते हैं और वे जीव और आत्मा की परिभाषाओं को मिश्रित रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनमें मूर्त और अमूर्त या द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार के लक्षण समाहित होते हैं । जैन लक्षणाचली में जैन शास्त्रों से जीव की परिभाषा के ५२ सन्दर्भ दिये हैं।
जीव की परिभाषा के संदर्भ में यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि शास्त्रों में जीवों के संबंध में विवरण तो पर्याप्त है, पर्यायवाची भी अनेक बताए गए हैं, पर इसकी परिभाषा कुछ ही ग्रन्थों में पाई जाती है । भगवती और प्रज्ञापना में जीव के पांच रूप बताए गए हैं :
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तुलसी प्रसा
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