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जाता है । यदि शरीर के अनुसार आत्मा संकोच-विस्तार न करे तो बचपन की आत्मा दूसरी और युवावस्था की दूसरी माननी होगी और ऐसा मानने से बचपन की स्मृति युवावस्था में नहीं होनी चाहिए। लेकिन बचपन की स्मृति युवावस्था में होती है इसलिए सिद्ध है कि आत्मा देह-परिमाण है ।४२ ४. प्रत्यक्ष प्रमाण से देह-परिमाण की सिद्धि
आचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से अपने-अपने शरीर में ही सुखादि स्वभाव वाले आत्मा की प्रतीति सभी को होती है। दूसरे के शरीर में और अन्तराल में उसकी प्रतीति नहीं होती है। इसलिए आत्मा को व्यापक मानना ठीक नहीं। यदि ऐसा न माना जाए तो सभी सर्वज्ञ बन जाएंगे क्योंकि सभी को सर्वत्र अपनी आत्मा की प्रतीति होती है। इसके अतिरिक्त विभु आत्मवाद में भोजनादि व्यवहार में संकर (मिश्रण) दोष भी आता है। क्योंकि आत्मा व्यापक है इसलिए एक खायेगा तो सबको उसका रसास्वादन होगा। जो किसी को भी मान्य नहीं है, इसलिए आत्मा व्यापक नहीं अपितु देह-परिमाण है। ५. अनुमान प्रमाण से देह-परिमाण की सिद्धि
___ अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि आत्मा व्यापक नहीं अपितु देह-परिमाण है जैसा कि कहा है-'आत्मा व्यापक एवं अणुरूप नहीं है क्योंकि वह चेतन है, जो व्यापक या अणुरूप होते हैं वे चेतन नहीं होते हैं, जैसे आकाश एवं परमाणु ।" इस अनुमान से भी आत्मा का शरीर-परिमाणत्व सिद्ध है । नय चक्र में भी सप्तसमुद्घात के सिवाय आत्मा को देह-परिमाण माना गया है । ५ केवली समुद्घात की अपेक्षा से आत्मा का आकार
सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार, जीवकांड में समुद्घात के स्वरूप का विवेचन किया है। समुद्घात के सात भेदों में केवली समुद्घात भी एक भेद है। केवली समुद्घात में आत्मा चौदह रज्जु चौड़े तीन लोकों में व्याप्त हो जाता है। इसलिए समुद्घात की अपेक्षा आत्मा व्यापक है। लेकिन यह कभी-कभी होता है इसलिए आत्मा को कथंचित् व्यापक मानना तो संभव है, लेकिन सर्वथा नहीं।
जैन दर्शन में आत्मा को कथंचित् सर्वव्यापी माना गया है। आत्मा ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने से ज्ञेय प्रमाण है तथा ज्ञेय समस्त लोकालोक है इसलिए ज्ञान सर्वगत है । ज्ञान के सर्वगत सिद्ध होने से आत्मा का सर्वव्यापकत्व सिद्ध होता है । प्रवचनसार में कहा है
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठं । __णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ कर्ममल रहित केवली भगवान अपने अव्याबाध केवलज्ञान से लोक और अलोक को जानते हैं । इसलिए वे सर्वगत हैं ।
___ जैन दार्शनिकों ने देह-परिमाण और व्यापकता का समन्वय अनेकान्तात्मकता की दृष्टि से किया है। यहां केवलज्ञान की दृष्टि से आत्मा को व्यापक और आत्म प्रदेश की दृष्टि से अव्यापक अर्थात् शरीर-परिमाण माना गया है।
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तुलसी प्रज्ञा
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