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परमाणुओं के साथ उसका सम्बन्ध न हान से वह अपने शरीर के लिए परमाणुओं को एकत्र नहीं कर सकेगा और शरीर के अभाव में सभी आत्माओं का मोक्ष मानना पड़ेगा। यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई निश्चित नियम नहीं है कि संयुक्त होने पर ही आकर्षण होता है। चुम्बक लोहे के साथ संयुक्त नहीं होता है फिर भी लोहे को आकर्षित कर लेता है । इसी प्रकार आत्मा का परमाणु के साथ संयोग न होने पर भी वह अपने शरीर के योग्य परमाणुओं को आकर्षित
कर सकता है।५ ५. आत्मा में कथंचित् रूप से सावयवत्व और कार्यत्व मानने से भी कोई हानि नहीं होती। क्योंकि आत्मा असंख्यात प्रदेश वाला है ।" इस दृष्टि से आत्मा सावयव है । एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्र में ठहरता है उसे प्रदेश कहते हैं।" आचार्य मल्लिषेण कार्यत्व की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि पूर्व आकार को छोड़कर दूसरा आकार धारण करना ही कार्यत्व है।८ आत्मा का स्मृति आदि क्षणों में जो मैं अनुभव कर रहा हूं, रूप पर्याय को छोड़कर स्मरण कर रहा हूं. वह रूप अवस्थान्तर को प्राप्त करना ही कार्यत्व है। अतः आत्मा में सावयवत्व
व कार्यत्व होने में कोई आपत्ति नहीं है। ६. आकाश का गुण शब्द बताकर उसके आधार पर आत्मा को व्यापक सिद्ध करना
भी उचित नहीं। क्योंकि शब्द आकाश का गुण नहीं हैं। वह तो पुद्गल है, इसलिए उसकी सर्वत्र उपलब्धि से आकाश को व्यापक मानना व्यर्थ है तथा इसके
आधार पर आत्मा को व्यापक सिद्ध करना अतार्किक है।" ७. आत्मा को व्यापक मानने से एक आपत्ति यह भी आयेगी कि सभी आत्माओं के शुभ-अशुभ कर्मों का मिश्रण हो जाएगा। अतः एक के दुःखी होने से सभी दुःखी
और एक के सुखी होने से सभी सुखी हो जायेंगे।" ८. आत्मा को व्यापक मानने पर यह दोष भी आता है कि सभी व्यापक आत्माओं
को स्वर्ग, नरक आदि समस्त पर्यायों का एक साथ अनुभव होने लगेगा।" ९. आत्मा को व्यापक मानने से उसे संसार का कर्ता मानना होगा क्योंकि ईश्वर की भांति आत्मा भी व्यापक है। इसलिए दोनों परस्पर दूध-पानी की तरह
मिल जायेंगे और दोनों ही सृष्टि के कर्ता होंगे या दोनों ही नहीं होंगे।" १०. शरीर-प्रमाण मानने पर शरीर के नाश होने से आत्मा का भी छेद हो जायेगा।
नैयायिकों के इस तर्क को समाधान देते हुए जैन दार्शनिकों का कहना है कि आत्मा का भी कथंचित् छेद मानने में कोई दोष नहीं है। यदि ऐसा न माना जाए तो कटे हुए अंग में कम्पन क्रिया की उपलब्धि नहीं होनी चाहिए । कटे हुए शरीर के भाग के आत्मप्रदेश पुन: पहले वाले आत्मप्रदेशों में आकर मिल जाते हैं। इस बात को कमल की नाल का उदाहरण देकर मल्लिषेण ने समझाया है।५ आत्मा को देहपरिमाण मानने पर आत्मा में पुनर्जन्म और मोक्षादि का अभाव भी नहीं आता है । इसलिए आत्मा को देह-परिमाण ही मानना चाहिए। मुक्त जीव भी अन्तिम
शरीर के आकार के ही होते हैं और वे उसी आकार में विद्यमान रहते हैं। २७०
तुलसी प्रमा
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