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आत्म-परिमाण
समणी ऋजुप्रज्ञा
आत्म तत्त्व भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है । दर्शन जगत् में आत्मा का स्वरूप जितना अधिक चर्चा का विषय बना, उतना ही अधिक आत्मा का परिमाण क्या है यह विषय भी । आत्म-परिमाण के विषय में तीन मत प्रचलित रहे हैं
१. आत्मा अणु-परिमाण वाला है। २. आत्मा विभु-परिमाण वाला है । ३. आत्मा देह-परिमाण वाला है ।
कुछ दार्शनिक जिनमें रामानुज, मध्व, बल्लभ और निम्बार्क' मुख्य हैं, आत्मा को अणुपरिमाण युक्त स्वीकार करते हैं। न्याय-वैशेषिक' सांख्य-योग' तथा शाङ्कर वेदान्त आदि दार्शनिक सम्प्रदाय आत्मा को विभु-परिमाण वाला सिद्ध करते हैं। जैन दर्शन आत्मा को शरीर-परिमाण वाला अर्थात् मध्यम-परिमाणयुक्त स्वीकार करता है।' उपनिषदों में आत्मा को व्यापक' अणु और शरीर प्रमाण बताया गया है। क्या आत्मा अणु-परिमाण वाला है ?
आत्मा को अणु-परिमाण मानने वाले आचार्यों का मत है कि आत्मा अतहृदय में चावल या जौ के दाने के बराबर है । डॉ० राधाकृष्णन् ने भी आत्मा को अणुरूप मानते हुए लिखा है-आत्मा बाल के हजारवें भाग के बराबर है और हृदय में निवास करता है । आचार्य रामानुज ने कहा है-अणु-परिमाण वाला जीव ज्ञान गुण के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में होने वाली सुखादि संवेदन रूप क्रिया का अनुभव करता है। जिस प्रकार दीपक की शिखा छोटी होते हुए भी संकोच-विस्तार गुण वाली होने से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती है, इसी प्रकार आत्मा ज्ञान गुण के द्वारा शरीर में होने वाली क्रियाओं को जान लेता है।" अणु रूप आत्मा अलात चक्र के समान पूरे शरीर में तीव्र गति से घूमकर सुख दुःखादि का अनुभव कर लेता है। अत: आत्मा अणु रूप ही है।
इस प्रकार अणुपरिमाण वादियों का तर्क है कि यदि आत्मा का अणु-परिमाण न मानकर व्यापक माना जाए तो आत्मा परलोक गमन न कर सकेगी। इसी प्रकार देह-परिमाण आत्मा मानने पर आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। इन दोषों के कारण आत्मा को वट-बीज की तरह अणु-परिमाण मानना ही उचित है। अणु-परिमाण की समीक्षा
आत्मा को अणु-परिमाण मानने वालों की समीक्षा करते हुए जैन दार्शनिकों ने
खण्ड २२, मंक ४
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