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है । अतः एक अभिन्न क्षेत्र में (उन्हीं आकाश प्रदेशों पर ) अवस्थित, कर्म के योग्य द्रव्य को यह जीव अपने ही हेतुओं के द्वारा सब आत्मप्रदेशों में बांधता । इसका उल्लेख गोम्मटसार" व पंचसंग्रह" में इसी प्रकार किया गया है ।
प्रदेशबन्ध का कारण है— योग । यदि कोई जीव संज्ञी है और समस्त पर्याप्तियों से युक्त है तथा उस काल में कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है तो तीव्र योग की अवस्था में प्रदेश बन्ध सर्वाधिक होता है । जैसे दसवें गुणस्थान में । इसके विपरीत यदि वह उक्त शर्तों को कम धारण करता है तो प्रदेश बन्ध में अन्तर आ जाता है ।
इस प्रकार संक्षेप में यह चतुविध कर्म - बन्ध - प्रक्रिया जैन दर्शन के वैशिष्ट्य की
सूचक है ।
सन्दर्भ :
१. " कम्मुणा उवाही जायइ" -- आयारो १।३।१।१९
२. उत्क्षेपणापक्षेणाकुंचनप्रसारणगमनानि पंच कर्माणि - नैयायिकों ने द्रव्यादि सात पदार्थों में तीसरे कर्म पदार्थ के पांच भेद किए हैं। इन्हें ही कर्म शब्द से अभिहित किया है ।
३. कर्तुरीप्सितमं कर्म - अष्टाध्यायी ( पाणिनि ) १/४ /७९
४. (क) रूपाणि: पुदगलाः -- तत्वार्थसूत्र, ५०४
(ख) स्पर्शरसगन्धवर्णवान पुदगल:- - जैन सिद्धान्त दीपिका, ४१
५. प्रवचनसार, टीका, २।२५
६. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष : तत्वार्थसूत्र १०/३
७. कर्म विपाक -- हिंदी प्रस्तावना - पं. सुखलाल संघवी की,
८. न्यायभाष्य --- १।१।२ तथा अन्यत्र
९. प्रशस्तपादभाष्य - पृ. ४७ ( चौखम्बा प्रकाशन, १९३० ) १०. द्रव्यसंग्रह - गाथा २
११. पंचास्तिकाय — गाथा, १४१
१२. कर्म प्रकृति - नेमिचंद्राचार्य विरचित
१३. प्रज्ञापना —२३।१।२९२
१४. भगवती सूत्र ९
१५. विपाकसूत्र (व्यावर प्रकाशन) की प्रस्तावना, पृ. २५
१६. प्रज्ञापनासूत्र - २३।१।२८९
१७. जैनदर्शन के आठ कर्म ये हैं: - ज्ञानावरणीय, दर्शनवरणीय, मोहनीय,
अंतराय, नाम, गोत्र, आयुष्य व वेदनीय
(क) उत्तराध्ययन ३३।२-३,
(ख) स्थानांग ८ । ३ । ५७६
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पृ. २३
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तुलसी प्रज्ञा
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