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उपनिषदों में कर्म का स्वरूप न आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश'
वैदिक साहित्य का अंतिम भाग उपनिषद् है। अतः इसका नाम वेदान्त भी है। उपनिषदों में आत्मज्ञान, मोक्षज्ञान और ब्रह्मज्ञान की प्रधानता होने के कारण उनको आत्मविद्या, मोक्षविद्या और ब्रह्मविद्या भी कहा गया है। ये वस्तुतः अध्यात्म विद्या के मानसरोवर माने गये हैं जिनसे भिन्न-भिन्न ज्ञान विज्ञान की नदियां निकलती हैं। इन्हें यदि अध्यात्म का अक्षुण्ण भंडार कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं । आस्मानंद की प्राप्ति आत्मज्ञान से संभव है। आत्मज्ञान से ही भव-बन्धन का विनाश संभव है। अतः जन्म और मरण के चक्र से छुटकारा पाकर आत्मानन्द की प्राप्ति ही उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है ।
'उपनिषद्' शब्द का व्युत्पतिपरक अर्थ उप (निकट) नि (नीचे, निष्ठापूर्वक) और सद् (बैठना) से नीचे निकट बैठना या नीचे निष्ठापूर्वक बैठना है। शिष्यगण गुरु से गुप्त विद्या सीखने के लिए उसके निकट बैठते थे। वनों में स्थापित आश्रमों के शांत वातावरण में उपनिषदों के विचारक उन समस्याओं पर चितन किया करते थे जिनमें उनकी बहुत ही गहरी रुचि थी और वे अपना ज्ञान अपने निकट उपस्थित योग्य शिष्यों को दिया करते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक शिक्षा को आत्मसात् करने के लिए हमारी प्रवृत्ति भी आध्यात्मिक होनी चाहिए।
चूंकि उपनिषदों में मोक्ष का प्रतिपादन है इसीलिए आचार्य शंकर उपनिषद् का अर्थ मोक्षविद्या या ब्रह्मविद्या करते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के अपने भाष्य में वे कहते हैं कि 'उपनिपन्नं वा अस्याम् परं श्रेय इति ।' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपनिषद् का अर्थ ब्रह्मज्ञान है जिसके द्वारा अज्ञान से मुक्ति मिलती है । इन सबके आधार पर प्रो० कीथ 'द रिलजिन एण्ड फिलासफी ऑव द वेद एण्ड द उपनिषद्स' में इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उपनिषदें हमें आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि और दार्शनिक तर्क प्रणाली दोनों प्रदान करती हैं।
उपनिषदों के शाब्दिक अर्थ के पश्चात् यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उपनिषदों की संख्या कितनी है। इसके सम्बन्ध में बड़ा विवाद है। कुछ लोगों के अनुसार इसकी संख्या २०० से भी अधिक है। वैसे भारतीय परम्परा में एक सौ आठ उपनिषदों का उल्लेख मिलता है। पर अधिकांश विद्वानों के अनुसार ग्यारह उपनिषद् प्राचीन एवं प्रामाणिक हैं जो इस प्रकार हैं - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्द्रोग्य, श्वेताश्वतर एवं वृहदारण्यक । उनकी प्रामाणिकता
खण्ड २२, अंक ४
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