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को प्राप्त करते हैं, वे फिर कभी नहीं लौटते मुक्त हो जाते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् कहा गया है कि कर्म अज्ञानी और सकाम पुरुषों के लिए ही है । इसी उपनिषद् में आगे कहा गया है 'कर्मणा पितृलोकः, विद्यया देवलोकः " अर्थात् कर्म से पितृलोक और विद्या से देवलोक की प्राप्ति होती है । प्रश्नोपनिषद् का चन्द्रलोक मुण्डकोपनिषद् में भी उद्धृत है। यहां कहा गया है 'इमं लोकं हीनतरं व विशान्ती " अर्थात् चन्द्रलोक से इसमें या इससे भी हीनलोक में प्रवेश करते हैं । प्रश्नोपनिषद् में ही यह उल्लेख भी है कि 'पुण्येन पुण्यम् लोकं नयति पापेन पापमुभयाभ्यामेव मनुष्यलोकम्" अर्थात् पुण्य कर्म से पुण्यलोक ( उपरिलोक) की प्राप्ति होती है और पापकर्म से पापलोक ( निम्नलोक ) की ओर उभय कर्मों से मनुष्य लोक की प्राप्ति होती है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कर्म का उल्लेख इस रूप में हुआ है
गुणान्वयो यः फलकर्म कर्त्ता,
कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुण स्त्रिवत्र्मा,
प्राणाधिपः संचरति स्वकर्मभिः ॥ १०
अर्थात् जो गुणों से सम्बद्ध, फलप्रद कर्म का कर्त्ता और उस किये हुए कर्म का उपभोग करने वाला है, वह विभिन्न रूपों वाला, त्रिगुणमय, तीन मार्गों (धर्म, अधर्म, (ज्ञान) से गमन करने वाला, प्राणों का अधिष्ठाता अपने कर्मों के अनुसार गमन करता है । यहीं पर आगे कहा गया है
संकल्पन स्पर्शनदृष्टि मोहे
साम्बुवृष्ट्या चात्माविवृद्धि जन्म । कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही,
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स्थानेषु रूपाण्यभिसंप्रपद्यते ॥
अर्थात् जिस प्रकार अन्न और जल के सेवन से शरीर की वृद्धि होती है वैसे ही संकल्प, स्पर्श, दर्शन और मोह से यह देही क्रमशः विभिन्न योनियों में जाकर उन कर्मों के अनुसार रूप धारण करता है । वृहदारण्यक उपनिषद् में भी कहा गया है कि कर्मफल में आसक्त हुआ पुरुष अपने कर्म को प्राप्त होता है ।"
आत्मा पहले के जीवन
विभिन्न उपनिषदों में कर्म के प्राप्त इस स्वरूप से यह स्पष्ट होता है कि उपनिषदों में पुनर्जन्म की मान्यता कर्म के परिणाम के रूप में स्वीकार है । वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार जिस प्रकार मनुष्य इस संसार में पहले पहने हुए कपड़ों को उतार कर नये कपड़े पहन लेता है, उसी प्रकार मनुष्य की के अपने कर्मों के अनुरूप नये शरीरों को धारण करती है विष्णुस्मृति" और भगवद् गीता" में भी इस सच्चाई को स्वीकार किया गया है। उपनिषदों में मनुष्य के मरने और जन्म लेने के अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है । जिस प्रकार जोंक जब घास की लम्बी पत्ती के अन्तिम सिरे पर पहुंच जाती है तो वह सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेती है और फिर अपने को उसकी ओर खींचती है उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर के अंत पर पहुंच कर सहारे के लिए कोई
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खण्ड २२, अंक ४
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