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इसलिए भी मान्य है क्योंकि शंकराचार्य ने इन पर भाष्य लिखा है । __भारतीय ग्रन्थों में उपनिषदों का अपना वैशिष्ट्य है। इसका प्रभाव न केवल भारतीय चिन्तकों, विद्वानों, विचक्षण पुरुषों पर पड़ा अपितु पाश्चात्य विद्वानों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। प्रसिद्ध निराशावादी दार्शनिक शापेनहावर अपनी मेज पर हमेशा उपनिषदों की लैटिन प्रति रखता था तथा सोने से पूर्व उसी में से प्रार्थनाएं किया करता था । प्रो० पाल डायसन ने उपनिषदों की महिमा का गुणगान करते हुए कहा है कि जैसी शांतिमयी विद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली। मैक्समूलर ने तो अपने जीवन के उत्कर्ष का श्रेय उपनिषदों को दिया है। कहते हैं दारा शिकोह ने उपनिषदों से प्रभावित होकर संस्कृत पढ़ना प्रारम्भ किया था और फारसी में उपनिषदों का अनुवाद किया। उसने सच्चाई को स्वीकार करते हुए कहा है कि आत्माविद्या के बहुत से ग्रन्थ मैंने पढ़े हैं पर परमात्मा की खोज की प्यास केवल उपनिषदें ही बुझा पाई। इससे ही शाश्वत शांति और सच्चे आनंद की प्राप्ति होती है। इन विद्वानों के विचारों की प्रस्तुति का यहां आशय उपनिषदों की प्रशस्ति करना नहीं अपितु इस सच्चाई को प्रतिपादित करना है कि अध्यात्म विद्या के इन उत्कृष्ट ग्रन्थों का प्रभाव अनायास ही विद्वानों पर नहीं पड़ा है।
उपनिषदों का शाब्दिक अर्थ, संख्या, प्रतिपाद्य विषय और वैशिष्ट्य के सिंहावलोकन के पश्चात् अब प्रश्न यह उठता है कि उपनिषदों में कर्म का क्या स्वरूप है ? इसकी विस्तार से विवीक्षा करने के पूर्व यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि चूंकि उपनिषद् आत्मविद्या, मोक्षविद्या, ब्रह्मविद्या है अतः इनका लक्ष्य आत्मा मोक्ष एवं ब्रह्म का प्रकृष्टता से प्रतिपादन करना।
कर्म और पुनर्जन्म की यत्र-तत्र स्वीकृति तो मिलती है पर इनका सूक्ष्म विवेचन नहीं मिलता है। इसका यह आशय नहीं कि उपनिषद् कर्म-सिद्धान्त से वंचित हैं। उपनिषद् के संदर्भ में कर्म की परिभाषा करते हुए यह कहा जा सकता है कि जब तक हम अहं को मिटाते नहीं और दिव्य मूलाधार में स्थित नहीं हो जाते, तब तक हम संसार नाम के अनंत घटनाक्रम से बंधे रहते हैं। इस घटना-जगत् को जो तत्त्व शासित करता है वही कर्म है। कर्म का नियम व्यक्ति के लिए कोई बाह्य वस्तु नहीं है । निर्णायक बाहर नहीं भीतर है । सृजन कर्मों का ही परिणाम है । ऐतरेय उपनिषद् के अनुसार सम्पूर्ण प्राणियों के कर्मफल रूप उपादान के अधिष्ठान भूत चारों लोकों अम्भ (धुलोक), मरीच (अन्तरिक्ष), पर (पृथ्वी) और आप (जल) की रचना हुई।' अर्थात् उपरिलोक, पृथ्वीलोक तथा निम्नलोक सबका सृजन कर्म नियम की व्यवस्था के कारण ही है।
प्रश्नोपनिषद् में चन्द्रलोक और सूर्यलोक के साथ दक्षिण मार्ग और उत्तर मार्ग का उल्लेख मिलता है। इस उपनिषद् के अनुसार जो लोग किसी कामनावश कर्म मार्ग का अवलम्बन करते हैं वे चन्द्रलोक पर ही विजय पाते हैं और संसार में आवागमन बनाये रखते हैं। ये लोग दक्षिण मार्ग से चन्द्रलोक की यात्रा करते हैं पर जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या द्वारा आत्मा की खोज करते हुए उत्तर मार्ग द्वारा सूर्यलोक २५२
तुलसी प्रज्ञा
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